ब्राह्मण कौन हैं (भाग -3)

शाँतिपर्वके आरम्भ ही में भीष्म पितामह ने चारों वर्णों के धर्मों का वर्णन करते हुये कहा था
अक्रोध, सत्यभाषण, धन को बाँट कर भोगना, क्षमा, अपनी स्त्री से सन्तान उत्पन्न करना, शौच, अद्रोह, सरलता और अपने पालनीय व्यक्तियों का पालन करनाये नौ धर्म सभी वर्णों के लिये समान हैं। अब ब्राह्मणों का धर्म बताता हूँ। इन्द्रियों का दमन करना यह ब्राह्मणों का पुरातन धर्म है। इसके सिवाय स्वाध्याय का अभ्यास भी उनका प्रधान धर्म है, इसी से उनके सब कर्मों की पूर्ति हो जाती है। यदि अपने धर्म में स्थित, शान्त और ज्ञान-विज्ञान से तृप्त ब्राह्मण को किसी प्रकार के असत् कर्म का आश्रय लिये बिना ही धन प्राप्त हो जाय तो उसे दान या यज्ञ में लगा देना चाहिये। ब्राह्मण केवल स्वाध्याय से ही कृतकृत्य हो जाता है, दूसरे कर्म वह करे या न करे। दया की प्रधानता होने के कारण वह सब जीवों का मित्र कहा जाता है।
READ MORE
इस से अगले अध्याय में कहा गया है—”जो ब्राह्मण दुश्चरित्र, धर्म हीन, कुलटा का स्वामी, चुगलखोर, नाचने वाला, राज सेवक अथवा कोई और निकृष्ट कर्म करने वाला होता है, वह अत्यन्त अधर्म है, उसे तो शूद्र ही समझो और उसे शूद्रों की पंक्ति में ही बिठाकर भोजन कराना चाहिए। ऐसे ब्राह्मण को देव पूजन आदि कार्यों से दूर रखना चाहिए। जो ब्राह्मण मर्यादाशून्य, अपवित्र, क्रूर स्वभाव वाला, हिंसामय, और अपने धर्म को त्याग कर चलने वाला हो, उसे हव्य, कव्य अथवा दूसरे दान देना न देने के बराबर ही है। ब्राह्मण तो उसी को समझना चाहिए जो जितेन्द्रिय, सोमपान करने वाला, सदाचारी, कृपालु, सहनशील, निरपेक्ष, सरल, मृदु और क्षमावान हो। इसके विपरित जो पाप परायण है उसे क्या ब्राह्मण समझा जाय?” इसी अध्याय में इन्द्र वेषधारी भगवान विष्णु ने राजा मान्धाता को राज-धर्म का उपदेश करते हुये कहा है कि—”यज्ञ-यागादि कराना और जो चारों आश्रम कहे गये हैं, उनके धर्मों का पालन करना ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है। ब्राह्मणों का प्रधान धर्म यही है। जो विप्र इसका पालन न करे, उसे शूद्र के समान समझ कर शस्त्र से मार डालना चाहिए। जो ब्राह्मण अधर्म में प्रवृत्त है, वह सम्मान का पात्र नहीं हो सकता, उसका किसी को विश्वास भी नहीं करना चाहिये।इसी प्रसंग में आगे चलकर राजा मान्धाता ने कहा है कि दस्यु नीच और दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति तो सभी वर्णों और आश्रमों में पाये जाते हैं। उनके चिन्ह अवश्य भिन्न-भिन्न होते हैं।इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति केवल जन्म से ब्राह्मण की उच्च पदवी का अधिकारी नहीं हो सकता, वरन् जो उस तरह के शुभ कर्म और त्याग का आचरण करेगा वही सम्मान और श्रद्धा का पात्र हो सकता है।
मानवीय कर्तव्यों का सर्वोच्च दिग्दर्शन कराने वाली श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है
शमो दमस्तपः शौचं क्षाँति रार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमस्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वमावगम्॥ 42
शौर्यम् तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दीनमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावगम्॥ 43
कृषिगोरक्ष्य वाणिज्यम् वैश्य कर्म स्वभावजम्॥ 44
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम्॥ 44
(गीता, अध्याय 18)
शम, दम, तप, शुद्धता, सहनशक्ति, सीधापन, ज्ञान, विज्ञान, आस्तिक्य ये सब स्वभाव ही से उत्पन्न हुये ब्राह्मण का कर्म है। स्वभाव ही से उत्पन्न क्षत्रिय के कर्म हैं, शौर्य, तेज धैर्य, दाक्षिण्य, युद्ध से न भागना दान तथा ईश्वर भाव। स्वभाव से उत्पन्न हुये वैश्य के कर्म हैं खेती, गोरक्षा तथा वाणिज्य। शूद्र का स्वाभाविक कर्म है परिचर्या।
इस प्रकार गीता में स्वभाव को ही प्रधानता दी गई है। वेदान्त मत के अनुसार यह स्पष्ट बताया गया है कि जिसका जो स्वाभाविक गुण है वही उसका वर्ण है। ब्राह्मण वर्ण जो सबसे श्रेष्ठ है, जन्म से साध्य नहीं, किन्तु परमात्मा के ज्ञान से साध्य है।
इतना ही नहीं अधिकाँश शास्त्रों और पुराणों से यह भी प्रकट होता है कि पहले समय मनुष्य जाति का एक ही वर्ण था, चार वर्ण अथवा भिन्न-भिन्न जातियों की स्थापना बाद में हुई है। श्रीमद्भागवत में कहा है
एक एव पुरावेदः प्रणवः सर्व वाँगमयः। देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च
9-14
श्रीधर स्वामी ने इसकी टीका करते हुये कहा है—”पहले सर्व वांग्मय प्रणव (ओंकार) ही एक मात्र वेद था। एक मात्र देवता नारायण थे और कोई नहीं। एक मात्र लौकिक अग्नि ही अग्नि थी और एकमात्र हंस ही एक वर्ण था।इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि प्राचीन समय में चार वर्णों के स्थान में एक ही वर्ण था। यही बात महाभारतमें कही गई है
एक वर्ण मिदं पूर्वं विश्वमासीद् युधिष्ठिर।
कर्म क्रिया विभेदेन चातुर्वर्ण्यम् प्रतिष्ठितम्॥
न विशेषोऽस्ति वर्णानाम् सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णात् गतम्॥
अर्थात्—”हे युधिष्ठिर, इस जगत में पहले एक ही वर्ण था। गुण-कर्म के विभाग से पीछे चार वर्ण स्थापित किये गये।
वर्णों में कोई भी वर्ण किसी प्रकार की विशेषता नहीं रखता, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्ममय है। पहले सबको ब्रह्मा ने ही उत्पन्न किया है। पीछे कर्मों के भेद से वर्णों की उत्पत्ति हुई।
वायु-पुराणमें बतलाया गया है कि भिन्न-भिन्न युगों में मानव-समाज का संगठन विभिन्न प्रकार का था
अप्रवृत्तिः कृतयुगे कर्मणोः शुभ पाययो। वर्णाश्रम व्यवस्थाश्च तदाऽऽसन्न संकरः॥
त्रेतायुगे त्वविकलः कर्मारम्भ प्रसिध्यति। वर्णानाँ प्रविभागाश्च त्रेतायाँ तु प्रकीर्तितः।
शाँताश्च शुष्मिणश्चैव कर्मिणो दुखनिस्तथा। ततः प्रवर्त्तमानास्ते त्रेतायाँ जज्ञिरे पुनः॥
(वायु पुराण 8, 33, 49, 57)
अर्थात्—”सतयुग में कर्मभेद, वर्णभेद, आश्रमभेद न था। त्रेतायुग में मनुष्यों की प्रकृतियाँ कुछ भिन्न-भिन्न होने लगीं, इससे कर्म-वर्ण आश्रम भेद आरम्भ हुये। तदनुसार शान्त, शुष्मी, कर्मी, और दुखी ऐसे नाम पड़े। द्वापर और कलि में प्रकृति-भेद और भी अभिव्यक्त हुआ, तदनुसार क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र नाम पड़े।
भविष्यपुराण” (अध्याय 4) में लिखा है
तस्मान्न गोऽश्ववत् किंचिंजातिभेदोस्ति देहिनाम्।
कार्य भेद निमित्तेन संकेतः कृतः॥
अर्थात्—”मनुष्यों में गाय और घोड़े जैसा कोई जाति-भेद नहीं है। यह काम के भेद के लिये बनावटी संकेत किये गये हैं।
विष्णु पुराणमें चारों वर्णों की उत्पत्ति शौनक ऋषि द्वारा बतलाई गई हैं
गृत्समदस्य शौनकश्चातुर्वर्ण्य प्रवत्तायिताऽभूत्।
(विष्णु पुराण 4-8-1)
भार्गस्या भार्गभूमिः अतश्चातुर्वर्ण्य प्रवृत्तिः।
(4-8-9)
अर्थात्—”गृत्समद् के पुत्र शौनक ने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था स्थापित की।
भार्ग से भार्गभूमि उत्पन्न हुये और उनसे चातुर्वर्ण्य प्रवर्तित हुआ।
हरिवंश पुराणमें भी इसी मत का समर्थन किया गया है
पुत्रो गृत्समदस्यापि शुनको यस्य शौनकाः ब्राह्मणाः। क्षत्रियाश्चैव वैश्याः शूद्रास्तथैव च॥
(29 वाँ अध्याय 15-19-20)
अर्थात्— “गृत्समद के पुत्र शुनक हुये। शुनक से शौनक कहलाने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बहुत से पुत्र हुये।
पद्म पुराणमें आरम्भ में केवल ब्राह्मण होने का उल्लेख है
स सर्ज ब्राह्मणानग्रे सृष्ट्या दौ स चतुर्मुखः। सर्वे वर्णाः पृथक पश्चात् तेषाँ वंशेषु जज्ञिरे॥
अर्थात्— “सृष्टि के आदि में पहले चतुर्मुख ब्रह्मा ने ब्राह्मण ही बनाये। फिर दूसरे वर्ण उन्हीं ब्राह्मणों के वंश में अलग-अलग उत्पन्न हुये।
अनेक व्यक्ति ऋग्वेदके ब्राह्मणोऽस्व मुखमासीद् बाहू राजन्या कृतःवाले मन्त्र के आधार पर भगवान के विभिन्न अंगों से अलग-अलग वर्णों की उत्पत्ति बतला कर उनको ऊँचा नीचा सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। पर भविष्य महापुराणके ब्रह्मपर्व (अध्याय 42) में इसको भ्रमपूर्ण बतलाते हुये लिखा है
यदि एक पिता के चार पुत्र हैं तो उन चारों की एक ही जाति होनी चाहिये। इसी प्रकार सब लोगों का पिता एक परमेश्वर ही है। इसलिए मनुष्य समाज में जातिभेद है ही नहीं। जिस प्रकार गूलर के पेड़ के अगले भाग, मध्य के भाग और जड़ के भाग तीनों में एक ही वर्ण और आकार के फल लगते हैं, उसी प्रकार एक विराट पुरुष, परमेश्वर के मुख, बाहु, पेट और पैर से उत्पन्न हुए मनुष्यों में (स्वाभाविक) जाति भेद कैसे माना जा सकता है?

किन्तु इतना सत्य यह है कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं है. कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है यह भी उतना ही सत्य है. इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथों में मिलते हैं जैसे…..
(१) ऐतरेय ऋषि अथवा अपराधी के पुत्र थे. परन्तु उच्चकोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की. ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है.
(
२) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे. जुआरी और हीनचरित्र भी थे. परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये. ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित करके आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण२.१९)
(
३) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए.
(
४) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
(
५) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए. पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया |(विष्णु पुराण ४.१.१३)
(
६) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(
७) आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए. (विष्णुपुराण ४.२.२)
(
८) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए.
(
९) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(
१०) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए. (विष्णु पुराण ४.३.५)
(
११) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया. (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए. इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं.
(
१२) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने.
(
१३) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना.
(
१४) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ.
(
१५) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे.
(
१६) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया. विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद में उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया.
(
१७) विदुर दासी पुत्र थे तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया.
                                                                                                                                                  -साभार 
विनम्र निवेदन- ब्राह्मण की सन्तान होने मात्र से ही क्या ब्राह्मण बना जा सकता है? जन्म से प्रत्येक व्यक्ति केवल शुद्र होता है. क्या है ब्राह्मणों का इतिहास? ब्राह्मणों के विषय में वेदों, स्मृतियों और पुराणों का क्या मत है? गोत्र क्या है? ऐसे कितने ही प्रश्न हम चाहकर भी नहीं जान पाते. इसलिए मैंने यह प्रयास प्रारम्भ किया है कि समस्त संसार जाने कि प्रत्येक पंडित, प्रत्येक पुजारी, प्रत्येक ज्ञानी, ब्राह्मण नहीं होता. मेरा उद्देश्य किसी की भावनाएं आहत करने का नहीं है. बल्कि समाज को ब्राह्मणों का वास्तविक परिचय कराने, पोंगा-पन्थ को समाप्त करने और ब्राह्मणों को अपशब्द कहने वाले, ब्राह्मणों से वैरभाव रखने वालों की आंखे खोलना है. साथ ही समाज में “ब्राह्मण” शब्द को उसका यथोचित सम्मान दिलाने का प्रयास करना है. आशा है आप सभी बुद्धिजीवियों का सहयोग एवं आशीर्वाद मुझे प्राप्त होता रहेगा.
                                    

                                                          My Website :-   www.sattadhari.com

Comments

Disclaimer

The views expressed herein are the author’s independent, research-based analytical opinion, strictly under Article 19(1)(a) of the Constitution of India and within the reasonable restrictions of Article 19(2), with complete respect for the sovereignty, public order, morality and law of the nation. This content is intended purely for public interest, education and intellectual discussion — not to target, insult, defame, provoke or incite hatred or violence against any religion, community, caste, gender, individual or institution. Any misinterpretation, misuse or reaction is solely the responsibility of the reader/recipient. The author/publisher shall not be legally or morally liable for any consequences arising therefrom. If any part of this message is found unintentionally hurtful, kindly inform with proper context — appropriate clarification/correction may be issued in goodwill.