प्राचीन हिन्दू शास्त्रीय वर्ण व्यवस्था में शूद्र को पैर कि संज्ञा क्यों दी गई??
प्राचीन शास्त्रीय वर्ण-व्यवस्था में यह उपमा व्यक्ति या जाति को जीववैज्ञानिक अंग नहीं देती, बल्कि सामाजिक-कर्तव्य (functional role) को प्रतीक के रूप में समझाती है। इस भ्रांति को समझना सबसे ज़रूरी है।
वैदिक दृष्टि में “ब्राह्मण = मुख” क्यों?
मुख से वाणी, ज्ञान, मंत्र, निर्णय, मार्गदर्शन निकलता है। इसलिए मुख ज्ञान-प्रकाश और दिशा देने का प्रतीक है। ब्राह्मण का मूल कार्य युद्ध या व्यापार नहीं, बल्कि सत्य, शास्त्र और नीति की रक्षा था।
“क्षत्रिय = हाथ/भुजाएँ” का अर्थ
हाथ शक्ति, रक्षा और प्रहार का माध्यम हैं।
क्षात्रधर्म = सुरक्षा, शासन, युद्ध और न्याय का क्रियान्वयन।
यानी शक्ति संरक्षक — rule by responsibility, not entitlement.
“वैश्य = उदर/उदर = पेट” क्यों?
उदर = संपूर्ण शरीर को भोजन और ऊर्जा उपलब्ध कराने वाला अंग।
वैश्य = कृषि, पशुपालन, व्यापार → समाज को आर्थिक ऊर्जा देने वाला वर्ग।
यहाँ धन कमाना नहीं, बल्कि समाज को पोषण देना और स्थिर रखना तात्पर्य है।
“शूद्र = पैर / चरण” का गूढ़ अर्थ
पैर शरीर की स्थिरता, आधार और गतिशीलता का स्रोत होते हैं।
शूद्र का तात्पर्य “निम्न” नहीं — समाज की जमीनी रीढ़, सबसे बड़ा और सबसे व्यावहारिक कार्यकर्ता वर्ग।
बिना पैरों के शरीर कहीं नहीं चलता — यानी foundation class, not humiliation.
यह Hierarchy नहीं बल्कि Symbiotic Model था
“वर्ण किसी की जन्म से पहचान नहीं, बल्कि कर्तव्य और गुणाधारित सामाजिक भूमिकाओं का दार्शनिक विभाजन था।”
यह विराट पुरुष सू़क्त का रूपक था — एक ही विराट चेतना के चार कार्यात्मक अंग, न कि श्रेष्ठ-हीन रैंकिंग।
उद्देश्य यह चेताना था कि समाज एक शरीर है और हर अंग आवश्यक है।
मूल शास्त्रीय वर्ण-व्यवस्था और उसके बाद उत्पन्न जाति-आधारित अन्याय के बीच का अंतर स्पष्ट हो सके।
1. वर्ण = गुण और कर्म आधारित मॉडल (मूल वैदिक दर्शन)
भगवद गीता (4.13): "गुण-कर्म-विभागशः" — भगवान स्वयं कहते हैं कि वर्ण का निर्धारण जन्म से नहीं, बल्कि व्यक्ति के स्वभाविक गुण और कर्तव्य से होता है।
इसका उद्देश्य गैर-बराबरी नहीं, बल्कि सामाजिक specialization और परस्पर पूरकता था।
हर वर्ण दूसरों की सेवा के लिए था, स्वयं के अधिकार के लिए नहीं। यानी वर्ण व्यवस्था = एक organic, dynamic, कर्म-आधारित व्यवस्था
2. जाति = विकृत, जड़ित और वंशानुगत संरचना
बाद की सामाजिक-राजनीतिक विकृतियों में वर्ण = जन्म आधारित जाति में बदल गया।
“ब्राह्मण का बेटा ही ब्राह्मण” — यह गीता-विरोधी और मूल धर्म-विरोधी विचार था।
जब गौण भूमिकाओं को प्रधानता, और प्रधान मूल्यों को परित्यक्त कर दिया गया, तभी भेदभाव/शोषण शुरू हुआ। जाति-प्रथा, मूल वर्णाश्रम का भ्रष्ट और अनैतिक रूप है।
कब और क्यों बिगड़ी यह व्यवस्था?
मौर्यकाल के बाद, विशेषतः गुप्तकाल और मध्यकाल में धार्मिक-सत्ता गठजोड़ से धर्म पर सत्ता का कब्ज़ा हो गया।
मुस्लिम आक्रमणों के समय भय और संकुचन के कारण “शुद्ध–अशुद्ध” के नाम पर जातिगत दीवारें और ऊँची की गईं।
फिर ब्रिटिश आए और उन्होंने Divide and Rule के लिए जाति census शुरू किया, और इस आग में घी डाला.
प्राचीन शास्त्रों में प्रमाण: वर्ण जन्म से नहीं, गुण-कर्म से तय किया गया है.
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः"— मैंने चार वर्णों की रचना गुण और कर्म के आधार पर की है।
महाभारत (शांति पर्व, अनुशासन पर्व)
“ब्राह्मण वही है जो ब्रह्म को जाने।जो केवल जन्म से ब्राह्मण कहलाए, वह ब्राह्मण नहीं — बल्कि वह सबसे बड़ा पाखंडी है।”
याज्ञवल्क्य स्मृति
मनुस्मृति (सबसे अधिक गलत उद्धृत की गई पुस्तक)
“जो कर्म और ज्ञान से धर्म-पालक है वह ब्राह्मण —और जो धर्म-विरुद्ध कर्म करता है वह शूद्र — चाहे जन्म कुछ भी हो।”






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