सीवान का तेज़ाबी फार्महाउस: लालू के जंगलराज का खौफनाक सच : शहाबुद्दीन ने कैसे कानून को जेब में रखा
बिहार के सीवान का नाम यदि आज भी ‘लोकतंत्र के भीतर समानांतर साम्राज्य’ के प्रतीक के रूप में लिया जाता है, तो उसकी जड़ में सिर्फ़ अपराध नहीं, बल्कि सत्ता-सुरक्षित अपराध की वह संगीन सच्चाई दबी है, जिसने न्याय व्यवस्था, मीडिया और जनता — तीनों को एक समय पर लगभग ‘बंधक’ बना लिया था। और इसी ‘तेज़ाबी साम्राज्य’ का सबसे क्रूर और प्रमाणित उदाहरण हैं — रजनीश और सतीश की एसिड (तेज़ाब) में जिंदा डुबोकर हत्या — जिसके मुख्य अभियुक्त थे स्वयं आरजेडी के दबंग सांसद मो. शहाबुद्दीन।
यह घटना कोई अफ़वाह नहीं — सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड पर दर्ज एक सत्य है
सन 1990 से 2005 तक का सीवान एक जिला नहीं, बल्कि एक साइलेंट डिक्टेटरशिप का मॉडल था।
क़ानून ‘सरकारी फाइल’ में था, और ‘न्याय’ का वास्तविक केंद्र था — शहाबुद्दीन का प्रभुनाथ नगर फार्महाउस।
ज़िला प्रशासन मौन, पुलिस ‘अभियोजक नहीं, सेवक’ मीडिया या तो भयभीत, या सौदेबाज़, जनता ‘लोकतंत्र नहीं, शासन-रहित डर’ में जीवित
रजनीश-सतीश हत्याकांड: एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के हृदय पर तेज़ाब की धार
वर्ष: 2004
सीवान के गाँव — जावेद मोहल्ला, दो भाई — रजनीश और सतीश। उनका ‘अपराध’?
सिर्फ़ इतना कि उन्होंने सीवान में आतंक और रंगदारी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी। उनका अपहरण किया गया. ले जाया गया शहाबुद्दीन के कुख्यात ‘प्रभुनाथ नगर फार्महाउस’ और वहाँ तेज़ाब से भरे ड्रम में “जिंदा डुबोकर मार दिया गया”
एक जीवित प्रत्यक्षदर्शी — मो. मोंटू — जिसने अदालत में उस घटना का बयान दिया। और यह बयान किसी लोककथा का हिस्सा नहीं — Supreme Court के न्यायिक रिकॉर्ड में सुरक्षित है।
शहाबुद्दीन स्वयं मौजूद था। उसने अपनी आँखों के सामने ड्रम में तेज़ाब भराने का आदेश दिया और अपने गुर्गों से हत्या कराई।
(Trail Court Observation, बाद में Patna High Court और Supreme Court द्वारा Confirmed)
राजनीतिक संरक्षण: अपराध नहीं, सत्ता का ‘गैर-घोषित गठबंधन’
रजनीश–सतीश हत्याकांड यह स्पष्ट कर देता है कि यह केवल एक आपराधिक कृत्य नहीं था —यह बिहार की सत्ता द्वारा निहित अथवा मौन स्वीकृति प्राप्त “पॉलिटिकल टेरर इंफ्रास्ट्रक्चर” का परिणाम था।
जिस समय यह हत्या हुई —राज्य की सत्ता आरजेडी (लालू यादव) के हाथ में थी। शहाबुद्दीन सिर्फ़ अपराधी नहीं था — वह सत्ता-समीकरण का हिस्सा था।
सीवान से RJD का लगातार सांसद, लालू यादव का “सबसे प्रभावशाली ज़मीन-स्तरीय एसेट” प्रशासकीय अधिकारियों की पोस्टिंग तक उसके इशारों पर होती. FIR दर्ज करने वाले पुलिसकर्मी तक को ट्रांसफर या सस्पेंड करा देना उसकी ‘रस्मी रूटीन’ थी
इसलिए यह घटना “कानून को चुनौती” नहीं — बल्कि “कानून को Owned Territory” घोषित करने का सार्वजनिक प्रदर्शन थी।
FIR दर्ज करने की हिम्मत भी ‘गैरकानूनी’ मानी जाती थी
रजनीश-सतीश के परिजनों ने स्थानीय थाने में रिपोर्ट कराने की कोशिश की —लेकिन पुलिस ने FIR लेने से ही इनकार कर दिया।
कारण साफ था —
थाना प्रशासन खुद ‘असली थाना’ के बाहर संचालित होता था — और वह था शहाबुद्दीन का फार्महाउस।
परिजन हार नहीं माने —उन्होंने पटना हाईकोर्ट में हैबियस कॉर्पस रिट (गायब युवकों की कानूनी खोज की याचिका) दाखिल की। यहीं से इस केस ने राष्ट्रीय कानूनी मोड़ पकड़ा —और न्यायप्रणाली पहली बार सीधे दखल में आई।
अदालत ने जब राज्य सरकार से पूछा: “यह सब हुआ कैसे?” — तो कोई जवाब नहीं था
जब Patna High Court ने बिहार सरकार से सीधा प्रश्न किया —
“क्या यह सत्य है कि राज्य के एक सांसद के फार्महाउस में हथियारबंद निजी जेल और तेज़ाब कक्ष मौजूद है?”
सरकार ने न तो स्वीकार किया, न ही प्रतिवाद—बल्कि “जाँच कर रहे हैं” जैसी औपचारिकता में मामला ठंडा रखने की कोशिश की।
यही वह क्षण था,जहाँ अदालत ने महसूस किया कि अगर न्यायालय हस्तक्षेप न करे — तो यह लोकतंत्र पर स्थायी धब्बा बन जाएगा।
जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा — “यह केवल एक हत्या नहीं, यह लोकतांत्रिक राज्य पर हमला है”
इस केस की सुनवाई जब Patna High Court से आगे बढ़कर Supreme Court तक पहुँची, तो वहाँ न्यायाधीशों ने स्पष्ट शब्दों में कहा —
“यह मात्र आपराधिक कृत्य नहीं — यह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की जड़ों को काटने का प्रयास है। यदि ऐसे लोगों को राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा, तो संविधान ही निष्प्रभावी हो जाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने आगे टिप्पणी की कि —
“पूरे सिस्टम की चुप्पी, मीडिया की सीमित आवाज़ और प्रशासनिक निष्क्रियता यह दर्शाती है कि यह एक व्यक्ति बनाम राज्य का मामला नहीं, बल्कि राज्य बनाम न्याय की अवधारणा का मामला है।”
गवाहों पर खुली अदालत में दबाव — न्यायपालिका स्वयं स्तब्ध
सबसे चिंताजनक दृश्य तब सामने आया,जब इस हत्याकांड का मुख्य चश्मदीद गवाह मो. मोंटू ने अदालत में बयान देते समय यह कहा —
“साहब, मैं यहाँ बोल रहा हूँ, लेकिन बाहर निकलते ही मेरी लाश बरामद होगी।”
और ठीक उसी समय अदालत के सामने मौजूद शहाबुद्दीन के समर्थकों ने आँखों के इशारों से धमकी दी। यह घटना राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर शीट में दर्ज है।
सुप्रीम कोर्ट ने शहाबुद्दीन को ‘राजनीतिक रूप से सुरक्षित गैंगस्टर’ घोषित किया
न्यायालय ने अपने अंतिम आदेश में कहा —
“यह केस Organized Crime का है, परंतु उससे भी अधिक — यह Political Crime है। यहाँ अपराधी केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि सत्ता का साझेदार है।”
और इसी आधार पर अदालत ने राज्य सरकार की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाया, और केस को ‘monitoring के लिए CBI’ को सौंपा।
यह केवल हत्या नहीं — लोकतांत्रिक भारत की “Rule of Law” बनाम “Rule of Fear” की निर्णायक लड़ाई थी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णयों में हमेशा “राज्य बनाम अपराधी” की भाषा उपयोग की है —
लेकिन इस केस में पहली बार न्यायालय ने कहा:
“यह मामला केवल एक अपराधी बनाम राज्य का नहीं — बल्कि Rule of Law बनाम Rule of Fear का संघर्ष है।”
यह वाक्य भारत की न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर है।
यह पहला अवसर था जब अदालत ने स्वीकार किया कि —
✅ लोकतंत्र के भीतर एक समानांतर भय-आधारित सत्ता तंत्र (Underground Political Governance Model) मौजूद है।
✅ और यह तंत्र सिर्फ़ अपराध नहीं — पूरे लोकतांत्रिक ढांचे को प्रतिस्थापित करने की क्षमता रखता है
✅ इसलिए इस पर सामान्य कानून नहीं, आपात संवैधानिक हस्तक्षेप आवश्यक है।
CBI को केस क्यों सौंपा गया? न्यायिक भाषा ने सब स्पष्ट कर दिया
Supreme Court ने कहा —
“राज्य तंत्र की निष्क्रियता ‘Failure of Governance’ से अधिक — ‘Willing Surrender to Anti-Constitutional Forces’ है।”
यानी अदालत ने सीधे-सीधे ‘सिस्टम जानबूझकर विफल हुआ’, ऐसा संकेत दिया। और यही वह क्षण था जब अदालत ने यह कहते हुए केस CBI को सौंपा:
“पीड़ित और गवाहों को न्याय की आशा राज्य से नहीं, केवल न्यायपालिका से है।”
तेज़ाब वाला ड्रम — अदालत का सबसे करारा शब्द
Supreme Court ने अपने ऑर्डर में लिखा —
“इस घटना में तेज़ाब केवल दो व्यक्तियों के शरीर पर नहीं डाला गया, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा पर फेंका गया।”
यह भाषा कोई भावनात्मक पत्रकारिता नहीं —भारत की सर्वोच्च न्यायालय की “लॉ डॉक्यूमेंट” में दर्ज़ शब्द हैं।






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