भारत का वैचारिक संघर्ष : सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम इस्लामिक अलगाववाद और कांग्रेस की चुनौती
भारत को समझने की सबसे बड़ी भूल है, इसे 1947 के बाद जन्मा “modern republic” मान लेना।
भारत को हजारों वर्षों से “आर्यावर्त, भारतवर्ष, जंबूद्वीप” कहा गया है —क्योंकि इसकी पहचान सत्ता से नहीं, संस्कृति से तय होती रही है।
यहाँ ऋषि-मुनियों का ज्ञान और लोक परंपराएँ, दोनों बराबर माने गए. यहाँ शक्ति (दुर्गा) और करुणा (बुद्ध) एक ही सांस्कृतिक समझ के दो आयाम हैं
यहाँ एकता “क़ानून क़ी मजबूरी” से नहीं — बल्कि आत्मिक जुड़ाव (Spiritual Unity) से उपजी.
इसीलिए जब औपनिवेशिक शक्तियों ने भारत को बाँटने की कोशिश की, तब भी भारत की चेतना टूटी नहीं —क्योंकि इसकी नींव संसद नहीं, संस्कृति में थी।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार राजनीतिक सत्ता नहीं, बल्कि सभ्यता की निरंतरता (Civilizational Continuity) है।
यह दृष्टिकोण यह मानता है कि राष्ट्र सीमाओं की रचना भर नहीं होता. वह संस्कृति, स्मृति, परंपरा और सामूहिक चेतना से निर्मित होता है
उसका अस्तित्व किसी संविधान के बनने से शुरू नहीं होता — बल्कि वह कालातीत, भूगोलातीत चेतना है. इसलिए भारत “Nation-state” नहीं, बल्कि Civilizational State है
यह विचार गांधी, विवेकानंद, तिलक, अरबिंदो — सब में दिखाई देता है। पर इसका बौद्धिक articulation सबसे स्पष्ट रूप से स्व. दीनदयाल उपाध्याय के “एकात्म मानव दर्शन” और वराहमिहिर / चाणक्य तक जाती भारतीय राजनीतिक परंपरा में मिलता है।
इस्लामिक अलगाववाद का ऐतिहासिक विकास
भारत में इस्लाम के प्रवेश के साथ केवल एक धर्म नहीं आया बल्कि एक राजनीतिक शासन-व्यवस्था का भी परिचय हुआ, जिसका मूल आधार था —
“धर्म सिर्फ निजी आस्था न होकर सत्ता संरचना का केंद्र भी है।”
यही वह बिंदु है जहाँ से आस्था-आधारित इस्लाम और राजनीतिक इस्लाम (Political Islam) में अंतर स्पष्ट होता है।
पहला व्यक्ति को अल्लाह से जोड़ता है, जबकि दूसरा राष्ट्र और राज्य की शक्ति संरचना को इस्लामी कानूनों के अधीन लाना चाहता है।
मुस्लिम लीग और दो-राष्ट्र सिद्धांत की उत्पत्ति
1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना सिर्फ मुसलमानों के “अधिकार” के लिए नहीं हुई —बल्कि मजहब आधारित सत्ता-साझेदारी की स्थायी गारंटी सुनिश्चित करने के लिए हुई।
1930 में इलाहाबाद में मौलाना मुहम्मद इक़बाल ने “अलग मुस्लिम राष्ट्र” की स्पष्ट मांग रखी.
1940 के लाहौर प्रस्ताव में सीधे कहा गया:
“मुसलमान एक राष्ट्र हैं — क्योंकि उनका मजहब एक है।”
यह धर्म-रक्षा नहीं, Political Sovereignty (शासन-स्वतंत्रता) की मांग थी. यहीं से “मजहब पहले, राष्ट्र बाद में” का विधान इस उपमहाद्वीप पर लागू हो गया. और परिणाम हुआ — पाकिस्तान।
आधुनिक भारत में इसका ‘Soft Expansion Model’
1947 के बाद भी यह विचार समाप्त नहीं हुआ — बल्कि और refined रणनीति के साथ पुनः सक्रिय हुआ। अब इसका सीधा नारा नहीं, बल्कि तरीके बदले गए —
जैसे:
Muslim Personal Law Board → “क़ानून संविधान से नहीं, शरीअत से चलेगा।”
CAA का विरोध → नागरिकता नहीं, Narrative Capture
शाहीन बाग़ → राजनैतिक केंद्र पर धार्मिक मोबिलाइजेशन का live model
Demographic Influence Model (जनसंख्या को राजनैतिक शक्ति बनाना)
Global Ummah Narrative → भारत नहीं, इस्लामी विश्व के दृष्टिकोण से सोचना
यह पूरा वैचारिक मॉडल कहता है:
“Islam is not just a religion — it is a power structure.”
और वह power structure स्वयं को “भारत के भीतर भारत” के रूप में स्थापित करना चाहता है।
कांग्रेस की रणनीतिक वैचारिक स्थिति
कांग्रेस की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उसकी समस्या वैचारिक नहीं — अस्तित्व की है।
इसी कारण कांग्रेस न तो स्पष्ट रूप से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पक्ष में खड़ी होती है, और न ही खुलकर इस्लामिक अलगाववाद की राजनीति का विरोध करती है।
वह बीच का एक ऐसा अस्पष्ट क्षेत्र चुनती है. जहाँ उसकी स्थिति “Secularism की रक्षा” जैसी लगे, लेकिन व्यावहारिक रूप से वोटबैंक appeasement बनी रहे।
इस रणनीति को ही राजनीतिक भाषा में कहते हैं — Strategic Ambiguity.
Appeasement vs Ideological Leadership
कांग्रेस एक समय वैचारिक नेतृत्व वाली राष्ट्रीय शक्ति थी (नेहरू–पटेल–शास्त्री काल)।
लेकिन 1975 के Emergency और 1985 के शाहबानो केस के बाद उसकी राजनीति स्पष्ट वैचारिक नेतृत्व से हटकर मतदान-प्रेरित appeasement oriented calculation में बदल गई।
शाहबानो केस → कोर्ट ने मुस्लिम महिला को न्याय दिया, कांग्रेस ने मजहबी वोट न छूटे इसलिए शरीअत के पक्ष में कानून पलट दिया
राम मंदिर आंदोलन → कांग्रेस न मंदिर के पक्ष में बोल पाई, न विरोध में — सीधे status quo appeasement
CAA, UCC, बुर्क़ा, Triple Talaq, काफ़िर नैरेटिव, इन सब पर कांग्रेस आज भी स्पष्ट स्टैंड नहीं लेती
यानी कांग्रेस अब वैचारिक नेतृत्व नहीं —
“मत खोना मत, चाहे राष्ट्र की दिशा स्पष्ट क्यों न हो” वाली पार्टी बन चुकी है।
राहुल गांधी का “भारत जोड़ो” और भ्रमित नैरेटिव
राहुल गांधी जब “भारत जोड़ो” यात्रा निकालते हैं, तो सैद्धांतिक रूप से यह अच्छा प्रयोग हो सकता था —यदि संदेश होता “Cultural Unity of India”.
लेकिन वास्तविकता में इसका narrative इस प्रकार लिया गया:
“हिंदू राष्ट्रवाद विभाजनकारी है”
“इस्लामी अलगाववाद को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है”
“Congress ही Neutral Space है"
पर जनता अब “neutral ambiguity” को वैचारिक clarity का विकल्प नहीं मानती।
इसलिए राहुल का narrative intellectual circles में तो चर्चा बनाता है —पर जनता में विश्वास नहीं, संदेह पैदा करता है।
भारत आने वाले वर्षों में केवल चुनावी टकराव नहीं देखेगा —बल्कि Civilizational Ideological Battle का एक निर्णायक चरण देखेगा।
यह लड़ाई “कौन सत्ता में आएगा?” से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है —
“राष्ट्र की आत्मा की परिभाषा कौन तय करेगा?” इस प्रश्न की लड़ाई है।
क्या भारत “सभ्यता-आधारित राष्ट्रवाद” चुन लेगा?
यह संभावना दिन-ब-दिन मजबूत होती जा रही है कि भारत अब पार्टी नहीं, “पैटर्न” चुनेगा। और यह पैटर्न भूगोल आधारित नहीं, सभ्यतागत स्मृति आधारित होगा।
हिंदू बहुसंख्यक अब स्थायी भ्रम की स्थिति में नहीं है. जनता वैचारिक स्पष्टता की माँग कर रही है
राष्ट्र आज पहचान के प्रश्न पर decisive mood में है.
क्या इस्लामिक अलगाववाद और तेज होगा?
हाँ — और यह स्वाभाविक है। क्योंकि हर वैचारिक चेतना जब स्वयं को अंतिम मानती है —तो वह वर्चस्ववादी (Dominant) होने की स्वाभाविक कोशिश करती है।
इस्लामिक राजनीतिक विचार के भीतर एक स्थायी दृष्टि मौजूद है —“यदि मजहब सत्य है, तो शासन भी उसी पर आधारित होना चाहिए।” इसी भाव की अनेक रणनीतियाँ भविष्य में और तीव्र होने की आशंका है.
कांग्रेस का भविष्य?
कांग्रेस के सामने सबसे कठिन प्रश्न यह है —
“क्या वह विचार में clarity लाएगी, या सिर्फ़ अस्तित्व भर बनाए रखने के लिए ambiguity पर टिके रहेगी?”
यदि उसने clarity नहीं चुनी तो भारत का लोकतंत्र राहुल बनाम मोदी नहीं, विचार बनाम विरोध-विचार का युद्ध बन जाएगा। और उस युद्ध में “जो अस्पष्ट होगा — वह मिटेगा।”
भारत आज एक मोड़ पर खड़ा है —जहाँ सवाल यह नहीं कि “कौन प्रधानमंत्री बनेगा”,बल्कि यह कि “भारत का आत्मा-निर्धारण कौन करेगा?”
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