भारत माता और राष्ट्रवाद की चेतना : RSS के 100 वर्ष और ₹100 स्मारक सिक्के का संदेश क्या है?
हाल ही में RSS (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की स्थापना के 100 वर्ष पुरे होने के अवसर पर भारत सरकार ने ₹100 का एक स्मारक सिक्का जारी किया है। उस सिक्के पर भारत माता की छवि — वरद मुद्रा में, सिंह के साथ और RSS के स्वयंसेवक, भारत माता के समक्ष श्रद्धा भाव से नतमस्तक दिखाए गए हैं.
“भारत” शब्द दो शब्दों की संयोजन से बना है-
भा = प्रकाश, ज्ञान
रत = रत (लीन)
अतः “भारत” = जो ज्ञान के प्रकाश में रत (लीन) हो अथवा जिसका झुकाव प्रकाश (ज्ञान) की ओर हो।
यानी भारत वह देश है जो ज्ञान, सत्य और चेतना में लीन है।
महाभारत और विष्णु पुराण दोनों में इसका उल्लेख है —
“उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः॥”
अर्थात — समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण तक फैला जो देश है, वही भारतवर्ष है, जहाँ भरत वंश के लोग रहते हैं।
भारत को “माता” क्यों कहा जाता है
यह विचार ऋग्वेद और अथर्ववेद की प्रार्थनाओं से निकलता है।
अथर्ववेद (12.1.12) में एक सूक्ति है —
"माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः"
अर्थात् — “भूमि मेरी माता है, और मैं उसका पुत्र हूँ।”
यानी पृथ्वी (भूमि) को माता कहना भारतीय चिंतन की हजारों वर्ष पुरानी परंपरा है।
जब इसी भूमि को “भारत” नाम दिया गया, तो उसका मातृरूप “भारत माता” कहा गया।
भारत माता कोई धार्मिक देवी नहीं है, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का मानवीकरण है। जब किसी देश को “माँ” के रूप में देखा जाता है,तो वह मात्र एक भौगोलिक ईकाई नहीं अपितु उसकी संस्कृति,चेतना,इतिहास, आस्था और बलिदान की परंपरा का मूर्तरूप बन जाती है।
यह भाव राष्ट्रवाद का आध्यात्मिक रूप है. इसी कारण ‘वंदे मातरम्’ (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, 1882) गीत में भारत को माँ के रूप में प्रणाम किया गया है।
सिक्के में अंकित भारत माता की मूर्ति एक हाथ में ध्वज लिए सिंह के पास खड़ी स्त्री के रूप में दिखाई गई है —
ध्वज (झंडा) — स्वतंत्रता और गौरव का प्रतीक है, और सिंह — शक्ति, साहस और स्वाभिमान का प्रतीक है.
सिंह के साथ खड़ी भारत माता की मूर्ति हमें यह स्मरण कराती है कि — “भारत भूमि केवल भूभाग नहीं, एक चेतन सत्ता है।
इसकी करुणा को दया समझना भूल है, क्योंकि इसके हृदय में सिंह की शक्ति और आत्मा में ज्ञान का प्रकाश है।”
यह मूर्ति भारत की सांस्कृतिक आत्मा की प्रतिमूर्ति है —
जिसमें करुणा भी है, पराक्रम भी है; ज्ञान भी है, कर्म भी है; ममता भी है, महिमा भी।
इसलिए जब कोई कहता है — भारत माता की जय,
तो वह भूमि को नहीं, उस सभ्यता को नमन करता है जिसने सिखाया —
“अहिंसा में भी शक्ति है, करुणा में भी पराक्रम।”
“भारत माता के हाथ में जो पताका (ध्वज या झंडा)* है — वह केवल कपड़े का टुकड़ा नहीं, बल्कि राष्ट्रचेतना, धर्मशक्ति और त्याग का प्रतीक है।
आइए इसे तीन दृष्टिकोणों से समझें — ऐतिहासिक, धार्मिक (संस्कृतिक) और राष्ट्रीय (राजनीतिक)।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण — पताका का उद्भव और विकास
वैदिक और प्राचीन भारत:
“पताका” या “ध्वज” शब्द का उल्लेख ऋग्वेद, महाभारत, और रामायण तक में मिलता है।
ऋग्वेद (10.85.3) में कहा गया —
“ध्वजिनः पृष्ठेषु पताका उन्नीयन्ते।”
अर्थात — “सेनाओं के पीछे-पीछे उनके ध्वज ऊँचे उठाए जाते थे।”
इस प्रकार पताका भारतीय परंपरा में सेना, धर्म और सम्मान — तीनों का प्रतीक रही है।
मध्यकाल में यह पताका धर्मध्वज के रूप में मठों और मंदिरों पर फहराई जाने लगी।
जैसे — भगवा ध्वज शैव, वैष्णव, जैन और बौद्ध परंपराओं में समान रूप से पूजनीय रहा।
मराठा साम्राज्य के दौरान भगवा झंडा (केसरिया पताका) “हिंदू स्वराज्य” का प्रतीक बना।
शिवाजी महाराज ने इस ध्वज को राजध्वज घोषित किया —
उनके लिए यह केवल झंडा नहीं, धर्मयुद्ध का ध्वज था।
स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका: जब 1905 में बंगाल विभाजन हुआ, उसी समय वंदे मातरम् के साथ “भारत माता” का चित्र पहली बार बंगाल में सामने आया. उनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में केसरिया ध्वज था।
भारतमाता का यह ध्वज स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक के रूप में छपने लगा —
क्रांतिकारियों ने इसे “मातृभूमि की पुकार” कहा।
भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, और विनायक दामोदर सावरकर — सभी ने भगवा या तिरंगा पताका को राष्ट्र की आत्मा माना।
धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण —
भगवा रंग का अर्थ:
“भगवा” शब्द “भग” (प्रभा या तेज) से बना है — अर्थात प्रकाश और त्याग का रंग।
यह रंग अग्नि का प्रतीक है — जो स्वयं को जलाकर भी सबको ऊष्मा और प्रकाश देती है।
इसलिए भगवा ध्वज संन्यास, बलिदान और धर्मनिष्ठा का प्रतिनिधि माना गया।
हिंदू मंदिरों पर पताका:
प्रत्येक हिंदू मंदिर के शिखर पर पताका लगाई जाती है।
यह संकेत है कि —
“यह स्थान ईश्वर के अधीन है, यह क्षेत्र धर्म के संरक्षण का प्रतीक है।”
मंदिर का पताका हर सुबह-शाम बदलना शुभ माना गया है, क्योंकि यह जीवंतता और चेतना का प्रतीक है।
धार्मिक शास्त्रों में:
स्कंद पुराण और कालिकापुराण में उल्लेख मिलता है कि जहाँ धर्म का ध्वज फहरता है, वहाँ अधर्म का नाश होता है।
भगवा ध्वज का रंग स्वयं सूर्य, अग्नि और त्याग की ऊर्जा से जुड़ा है।
इसीलिए उसे “धर्मपताका” कहा गया।
भारत माता के हाथ की पताका हमें यह सिखाती है कि —
राष्ट्र की रक्षा केवल सीमाओं से नहीं, संस्कारों से होती है।
और उन संस्कारों का झंडा जब ऊँचा फहरता है, तभी समाज में आत्मबल और एकता बनी रहती है।
यह पताका धर्म का ध्वज, राष्ट्र का अभिमान, और सत्य का प्रतीक है।
जब यह लहराता है, तो वह केवल हवा में नहीं, बल्कि हर भारतीय के हृदय में विश्वास जगाता है।






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