जलियांवाला से अयोध्या तक: सत्ता बनाम जनता का संघर्ष

Jallianwala Bagh and Ayodhya firing comparison – state vs people struggle

भारत के आधुनिक इतिहास में दो दृश्य बार-बार सामने आते हैं —एक, 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर का जलियांवाला बाग,दूसरा, 30 अक्टूबर और 2 नवंबर 1990 को अयोध्या का सरयू तट।

पहली घटना में विदेशी सत्ता ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से छलनी किया। दूसरी में भारतीय सत्ता ने अपने ही नागरिकों (रामभक्तों ) पर गोली चलाई।

दोनों ही घटनाएँ इस प्रश्न को जन्म देती हैं:

क्या जब सत्ता अंधी हो जाती है, तो जनता का खून सस्ता हो जाता है?

👉इसे भी पढ़ें : अगर ऐसे ही जारी रहा तो 150 साल बाद हिन्दू नहीं बचेगा 

जलियांवाला बाग: औपनिवेशिक अत्याचार का प्रतीक

13 अप्रैल 1919 — बैसाखी का दिन। हजारों भारतीय ब्रिटिश रॉलेट एक्ट के विरोध में जलियांवाला बाग में एकत्रित हुए।

जनरल डायर ने बिना चेतावनी के गोली चलाने का आदेश दिया। अमृतसर की संकरी दीवारों में फंसे लोग, न निकलने का रास्ता,और 1650 राउंड गोलियां —सैकड़ों शव, सैकड़ों अधूरे सपने, और एक नई राष्ट्रीय चेतना।

वह दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का टर्निंग पॉइंट बना।

महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया।

लोगों ने समझा — जब अत्याचार असहनीय हो जाए, तो प्रतिरोध अनिवार्य हो जाता है।

अयोध्या 1990: जब अपने ही राज्य ने चलवाई गोलियाँ

71 वर्ष बाद —2 नवंबर 1990, अयोध्या।

हजारों कारसेवक “जय श्रीराम” के उद्घोष के साथ सरयू तट की ओर बढ़ रहे थे। उनके हाथों में हथियार नहीं, केवल आस्था थी।

लेकिन तब की सरकार ने उन्हें ‘कानून-व्यवस्था’ का खतरा घोषित किया। और गोली चली — अपने ही नागरिकों पर।

कई रामभक्त वहीं ढेर हो गए। अयोध्या की सड़कों पर रक्त की धारा बह निकली, और इतिहास ने अपने ही देश में एक नई जलियांवाला बाग जैसी छाया देखी।

इसे भी पढ़ें : जयप्रकाश नारायण बनाम अखिलेश यादव 

समानता और विरोधाभास

दोनों ही घटनाओं में एक समान सूत्र छिपा है —सत्ता बनाम जनता का संघर्ष।

जहाँ जनता आस्था या अधिकार के लिए खड़ी होती है, वहाँ सत्ता अपने अस्तित्व के भय से हिंसा का सहारा लेती है। 

सत्ता का चरित्र और जनचेतना का पुनरुत्थान

जलियांवाला बाग ने ब्रिटिश साम्राज्य के नैतिक दिवालियापन को उजागर किया। अयोध्या की गोलीबारी ने भारतीय राजनीति के भीतर छिपे विचारधारात्मक द्वंद्व को।

दोनों घटनाएँ अपने-अपने समय की मॉरल टर्निंग पॉइंट साबित हुईं। जलियांवाला बाग ने गुलामी से मुक्ति की चेतना जगाई। अयोध्या ने आस्था से राजनीति की पुनर्संरचना की।

भारतीय मानस में प्रतिरोध की परंपरा

भारतीय सभ्यता में प्रतिरोध केवल हथियार नहीं, सत्य की साधना रहा है।

राजसत्ता जब अधर्म करती है, तो जनता “धर्मयुद्ध” के रूप में उठ खड़ी होती है।

भगवान राम ने रावण के विरुद्ध धर्मयुद्ध किया, महात्मा गांधी ने अहिंसक प्रतिरोध का मार्ग दिखाया। अयोध्या के कारसेवकों ने उसी भाव को पुनर्जीवित किया —कि आस्था के विरुद्ध गोली चल सकती है, पर आत्मा नहीं मरती। 

राजनीति बनाम नैतिकता

1919 का जनरल डायर और 1990 का प्रशासन —दोनों के निर्णय ‘राजनीतिक सुविधा’ से प्रेरित थे, न कि ‘नैतिक विवेक’ से।

राजनीति जब जनभावना को शत्रु समझने लगती है, तो लोकतंत्र का चरित्र खो देती है।

इसलिए यह तुलना मात्र प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा के लिए चेतावनी है —कि सत्ता जब जनता की आवाज़ दबाने लगे, तो वह किसी भी रूप में जनरल डायर बन सकती है।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अर्थ

आज जब धार्मिक आस्था, स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद को “राजनीतिक रंग” में बांधा जाता है, तो हमें याद रखना चाहिए कि इतिहास बार-बार दोहराया जाता है।

जलियांवाला और अयोध्या —दोनों ही यह सिखाते हैं कि जनभावना को कभी गोली से नहीं दबाया जा सकता।

वह पीढ़ियों में प्रतिध्वनित होती है, और अंततः इतिहास को बदल देती है।

इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं, चेतना का जागरण

जलियांवाला बाग ने भारत को स्वतंत्रता दी, अयोध्या ने उसे आत्मसत्ता का बोध कराया।

पहली घटना ने हमें “राष्ट्र” बनने की प्रेरणा दी, दूसरी ने “धर्म और संस्कृति” के पुनर्जागरण का मार्ग दिखाया।

इसलिए, तुलना केवल घटनाओं की नहीं, जनचेतना की है। दोनों ही रक्तरंजित पथों ने भारत को

एक नया प्रश्न दिया —क्या सत्ता का डर जनता की आस्था से बड़ा हो सकता है? उत्तर है — कभी नहीं।

जलियांवाला बाग और अयोध्या गोलीकांड दोनों ही भारतीय चेतना के दो कालखंड हैं, जहाँ सत्ता ने जनता की आवाज़ को कुचलने की कोशिश की, परंतु हर बार जनता ने अपनी आस्था और स्वतंत्रता से इतिहास लिखा। यह संघर्ष अब भी जारी है — सत्ता बदलती है, लेकिन जनता की चेतना नहीं।

Comments

Disclaimer

The views expressed herein are the author’s independent, research-based analytical opinion, strictly under Article 19(1)(a) of the Constitution of India and within the reasonable restrictions of Article 19(2), with complete respect for the sovereignty, public order, morality and law of the nation. This content is intended purely for public interest, education and intellectual discussion — not to target, insult, defame, provoke or incite hatred or violence against any religion, community, caste, gender, individual or institution. Any misinterpretation, misuse or reaction is solely the responsibility of the reader/recipient. The author/publisher shall not be legally or morally liable for any consequences arising therefrom. If any part of this message is found unintentionally hurtful, kindly inform with proper context — appropriate clarification/correction may be issued in goodwill.