क्या भारत में धर्म राष्ट्र से बड़ा है? — एक संरचित, प्रमाणिक विश्लेषण
भारत के संवैधानिक ढांचे में राष्ट्र सर्वोपरि है. राज्य (State) और नागरिक-स्वतंत्रताओं की वैधता संविधान से आती है, न कि किसी एक धार्मिक परंपरा से। फिर भी, भारत का सार्वजनिक जीवन धर्म-संस्कृति से ऐतिहासिक रूप से गहरा प्रभावित रहा है—यही कारण है कि बहस “धर्म बनाम राष्ट्र” नहीं, बल्कि “धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य और बहुलतावादी आस्था-परंपराओं का संतुलन” है। गांधी, आंबेडकर, सावरकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, एम.एस. गोलवलकर और दत्तात्रेय होसबोले के विचार इस बहस के अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं— कभी पूरक, कभी टकराते हुए। नीचे इन दृष्टियों का तथ्याधारित, तुलनात्मक विश्लेषण है।
भारतीय गणराज्य
“हम भारत के लोग…” से शुरू होने वाले संविधान पर टिका है—लोकतांत्रिक वैधता और नागरिक अधिकारों का स्रोत
संविधान है, किसी एक धर्मग्रंथ का नहीं।
आंबेडकर ने इसे “constitutional
morality” कहकर रेखांकित किया—यह कोई स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि ऐसी
संस्कृति है जिसे गढ़ना पड़ता है। (उनका सुप्रसिद्ध कथन—“Constitutional morality is not a natural sentiment…”—Annihilation of Caste के संदर्भ में उद्धृत होता है।)
गांधी ने स्पष्ट
कहा—“जो लोग कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई सरोकार नहीं, वे धर्म का अर्थ
नहीं समझते।” गांधी की दृष्टि “धर्म-प्रेरित नैतिक राज्य” की है, लेकिन धर्म-राज्य (theocracy) की नहीं। उनकी
“रामराज्य” अवधारणा भी नैतिक-न्याय प्रधान शासन का रूपक है, किसी एक संप्रदाय-आधारित शासन का नहीं।
आंबेडकर का
मानना था—“Religion is for man, not man for
religion” आंबेडकर की
रेखा स्पष्ट है—राष्ट्र और नागरिकता की आधार-रेखा संविधान है. धर्म का स्थान
निजी/सामाजिक नैतिकता में है, और जब धर्म मानव-मर्यादा के विरुद्ध जाए तो उसका
आलोचनात्मक पुनर्विचार आवश्यक है।
वी.डी. सावरकर
की पुस्तक Hindutva में “राष्ट्र”
की परिभाषा सांस्कृतिक-ऐतिहासिक एकात्मता से आती है— “हिंदू वह, जो भारत को पितृभूमि (pitribhumi) और पुण्यभूमि (punyabhumi) दोनों माने।“ इस ढांचे में धर्म एक सभ्यता-संकेतक बन जाता है. राष्ट्र की पहचान का मूलाधार सांस्कृतिक-स्मृति
और ऐतिहासिक-चेतना है। समकालीन अध्ययनों में यह सूत्र बार-बार उद्धृत है।
गोलवलकर की
कृतियाँ—We, or Our Nationhood Defined
तथा Bunch of Thoughts—राष्ट्र की परिभाषा में सांस्कृतिक एकरूपता को अधिक महत्त्व देती हैं। कुछ
उद्धरणों/व्याख्याओं में वे यह रुख रखते दिखते हैं कि जो समुदाय भारतीय (हिंदू)
संस्कृति को नहीं अपनाते, वे “विदेशी” ठहर सकते हैं—यही वह बिंदु है जिस
पर उनके आलोचकों ने नागरिक-समानता और बहुलतावाद की दृष्टि से कड़ी आपत्ति उठाई है। मूल
ग्रंथ/सार-संकलन और विद्वत्-आलोचनाएँ इस विमर्श का आधार हैं।
जनसंघ के
संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के लिए राष्ट्र-राज्य की एकता और एक कानून (single constitutional order) सर्वोपरि थी—यह दृष्टि “राष्ट्र संविधान से
बड़ा” नहीं, बल्कि “संविधान-आधारित एकीकरण” पर बल देती है।
वर्तमान RSS नेतृत्व में दत्तात्रेय होसबोले ने बार-बार कहा कि राष्ट्रधर्म (nation-first
duty) सर्वोपरि नैतिक दायित्व है।
भारत में धर्म राष्ट्र से
“बड़ा” नहीं—राष्ट्र-राज्य की वैधता और नागरिक अधिकारों की
आधार-शिला संविधान है, पर भारत का राष्ट्रवाद धर्म-संस्कृति की नैतिक ऊर्जा को नकारता भी
नहीं. उसे संवैधानिक सीमाओं के भीतर लोक-कल्याण की दिशा देता है।
Disclaimer : यह लेखक के निजी विचार हैं. इनसे सहमत होना या न होना अनिवार्य नहीं है.
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