राजनीतिक इस्लाम क्या है? — एक स्पष्ट, व्यावहारिक और गंभीर व्याख्या
“राजनीतिक इस्लाम” (Political Islam) कोई आध्यात्मिक या केवल धार्मिक शब्द नहीं है — बल्कि यह इस्लाम को एक संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था और शासन प्रणाली के रूप में लागू करने की विचारधारा है। इसका मूल विश्वास यह है कि राज्य, संविधान, क़ानून, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, समाज — सब कुछ इस्लाम के शरीयत सिद्धांतों के अधीन होना चाहिए।
पाकिस्तान में जमात-ए-इस्लामी, तुर्की का AKP, मिस्र का मुस्लिम ब्रदरहुड, भारत में AIMIM जैसी पार्टियाँ राजनीतिक भागीदारी का उपयोग इस्लामी समाज-व्यवस्था लागू करने के साधन के रूप में करती हैं।
कुछ “कट्टर” संस्करण हथियारबंद जेहाद को वैध मानते हैं — जैसे अल-कायदा, ISIS, तालिबान आदि।
यह एक पूर्ण वैचारिक आंदोलन है जो धर्म को निजी आस्था नहीं, बल्कि राज्य-सत्ता की विचारधारा बनाना चाहता है।
राजनीतिक इस्लाम का इतिहास
1. राजनीतिक इस्लाम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
पैगंबर मोहम्मद के समय मदीना राज्य को इस्लामी शासन का आदर्श माना गया — जहाँ धार्मिक और राजनीतिक सत्ता एक ही हाथ में थी।
इस मॉडल को आगे ख़िलाफ़त (Caliphate) ने अपनाया, जो इस्लाम के प्रसार और राजनीतिक शासन दोनों का प्रतिनिधित्व करता था।
अब्बासी और उमय्यद काल में राजनीतिक इस्लाम एक साम्राज्यवादी विस्तार के रूप में उभरा।
20वीं सदी में ख़िलाफ़त के पतन (1924, तुर्की) के बाद इसका पुनरुत्थान “इस्लामी पुनर्जागरण आंदोलन” के रूप में हुआ, जिसमें मिस्र की मुस्लिम ब्रदरहुड (1928) ने वैचारिक भूमिका निभाई।
2. राजनीतिक इस्लाम की वैचारिक संरचना
राजनीतिक इस्लाम मानता है कि —
“इस्लाम केवल धर्म नहीं, बल्कि एक संपूर्ण जीवन-पद्धति और शासन-संहिता है।”
इसके प्रमुख स्तंभ हैं:
1. अल्लाह की सर्वोच्चता (Sovereignty of Allah)
— सत्ता जनता की नहीं, ईश्वर की है।
2. शरीयत सर्वोपरि कानून (Sharia as Supreme Law)
— लोकतांत्रिक संविधान या संसद को अल्लाह के आदेश के नीचे माना जाता है।
3. उम्माह की एकता (Ummah Unity)
— राष्ट्रवाद को अस्वीकार कर “इस्लामी भाईचारे” को प्राथमिकता दी जाती है।
4. जिहाद और इस्लामीकरण (Jihad & Islamization)
— समाज और राज्य को इस्लामी मूल्यों के अनुरूप ढालना धर्मिक कर्तव्य माना जाता है।
राजनीतिक इस्लाम के तीन स्तर
बौद्धिक (Intellectual) : लेखन, शिक्षा, मीडिया के माध्यम से वैचारिक प्रचार
संवैधानिक (Constitutional) : चुनाव और लोकतांत्रिक संस्थाओं में भागीदारी के माध्यम से इस्लामी कानून लागू करने का प्रयास
सशस्त्र (Militant) : हिंसक जिहाद या आतंकवाद के जरिये शरीयत आधारित राज्य की स्थापना
भारत में राजनीतिक इस्लाम का प्रभाव
भारत में राजनीतिक इस्लाम की जड़ें औपनिवेशिक काल से गहरी हैं।
1947 का विभाजन राजनीतिक इस्लाम के सफल प्रयोग का परिणाम था. जब धर्म को राजनीतिक आधार बनाया गया।
स्वतंत्र भारत में AIMIM (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) जैसे दल धार्मिक पहचान के आधार पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग करते हैं।
मदरसा और शरिया बोर्ड नेटवर्क भी धीरे-धीरे “सामाजिक-धार्मिक से राजनीतिक दबाव समूह” में रूपांतरित हो रहे हैं।
कांग्रेस और वामपंथी दलों ने वोट बैंक की राजनीति के लिए इस प्रवृत्ति को अप्रत्यक्ष वैधता दी।
राजनीतिक इस्लाम बनाम भारतीय लोकतंत्र
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समान अधिकारों पर आधारित है, जबकि राजनीतिक इस्लाम धर्म-आधारित कानून और समुदाय-प्रधान शासन की वकालत करता है।
इस प्रकार राजनीतिक इस्लाम भारत के संवैधानिक ढांचे और बहुलतावादी समाज के लिए वैचारिक चुनौती प्रस्तुत करता है।
हिंदू राजनीतिक प्रतिक्रिया
राजनीतिक इस्लाम के उदय ने भारत में हिंदू राजनीतिक चेतना को भी सशक्त किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने इसे “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम इस्लामी अलगाववाद” के विमर्श में बदला।
इससे भारतीय राजनीति दो ध्रुवों में विभाजित हुई —
एक तरफ धर्मनिरपेक्ष बहुलतावाद, दूसरी तरफ धर्माधारित पहचान राजनीति.
वैश्विक परिप्रेक्ष्य
राजनीतिक इस्लाम की वैश्विक प्रवृत्तियाँ चार प्रकार की हैं:
1. संवैधानिक – तुर्की (Erdogan), मलेशिया
2. सशस्त्र – तालिबान, ISIS
3. क्रांतिकारी – ईरान की इस्लामिक क्रांति
4. सांस्कृतिक – पश्चिमी देशों में “इस्लामी पहचान आंदोलन
भारत जैसे बहुधार्मिक लोकतंत्र में राजनीतिक इस्लाम का प्रयोग अत्यंत संवेदनशील और विभाजनकारी है।
यह धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि धर्म को राज्यसत्ता में बदलने की महत्वाकांक्षा है।
इसलिए भारत को अपने संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के साथ-साथ धार्मिक राजनीति की इस वैचारिक चुनौती को शिक्षा, सुधार और कानून के संतुलित संयोजन से संभालना होगा।
भारत का भविष्य संविधान, समानता और नागरिक-स्वाभिमान में निहित है। राजनीतिक इस्लाम जैसी वैचारिक चुनौतियों का मुकाबला केवल सरकार का काम नहीं; यह हर नागरिक का कर्तव्य है। जागरूक बनें, वोट दें, सत्य-आधारित बहस फैलाएँ और सार्वजनिक जीवन में संविधान की रक्षा को प्राथमिकता बनाइए। अब वक्त है—नींद से उठकर राष्ट्र-निर्णय लेने का। भारत सहन नहीं करेगा; भारत खड़ा होगा।
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