परस्परं भावयन्तः: क्या गीता ही राजनीतिक पुनर्जागरण का एकमात्र सूत्र है?

 

भारत की समकालीन राजनीति एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। चुनाव, गठबंधन, जातीय समीकरण, मीडिया मैनेजमेंट और डिजिटल नैरेटिव — आज राजनीति की प्राथमिक भाषा बन चुके हैं। लेकिन इस परिवर्तन के बीच एक अत्यंत गंभीर संकट छिपा है — राजनीति का “राज-धर्म” से विच्छेद।

यहीं गीता का यह श्लोक —
“परस्परं भावयन्तः सर्वभूत हिते रताः”
आधुनिक भारतीय राजनीति के लिए एक नैतिक, आध्यात्मिक और रणनीतिक मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है।

वर्तमान भारतीय राजनीति का मूल विचलन

आज चंद विपक्षी दलों की राजनीति “राष्ट्र निर्माण” का माध्यम नहीं, बल्कि मुख्यतः “सत्ता प्राप्ति और सत्ता संरक्षण” का कौशल मात्र बनकर रह गई है। परिणामस्वरूप —

नीति → PR इवेंट बन चुकी है

वोटर → ग्राहक बन चुका है

जनतंत्र → जनभावना-व्यापार का उद्योग बन चुका है

राष्ट्र का भविष्य → इलेक्शन साइकल तक सीमित हो चुका है

यह लोकतंत्र की विफलता नहीं — राजनीति के आध्यात्मिक सत्व के नाश की घोषणा है।

गीता का समाधान: राजनीति को पुनः “सहजीवन” में स्थापित करो

गीता का यह सूत्र कहता है:

> राजनीति केवल कानून व्यवस्था या संसाधन वितरण का विज्ञान नहीं है;

यह परस्पर उन्नति (Mutual Elevation) और
सर्वभूत कल्याण (Universal Responsibility) का तप है।

यानी —सच्ची राजनीति वह है जो किसी एक वर्ग को खुश करके बहुमत जीतने की नहीं,
बल्कि समाज के हर स्तर को उठाने की साधना हो।

आधुनिक राजनीति बनाम भारतीय दृष्टि

वर्तमान राजनीतिक मानसिकता गीता-प्रेरित राष्ट्रीय दृष्टि.

वोट बैंक आधारित विभाजन सांस्कृतिक एकात्म भाव

समस्या प्रबंधन सभ्यता पुनर्निर्माण

सत्ता-केंद्रित राजनीति कर्तव्य-केंद्रित राजनीति

भय या लाभ आधारित समर्थन विश्वास और सह-अस्तित्व आधारित राष्ट्र-बोध

हमारा मत 

यदि राजनीति में “सर्वभूत हित” की दैवी दृष्टि पुनर्स्थापित नहीं हुई —तो लोकतंत्र धीरे-धीरे नियंत्रित अराजकता (managed chaos) में परिवर्तित हो जाएगा। परंतु यदि यह भाव प्रवेश कर गया —

“परस्परं भावयन्तः सर्वभूत हिते रताः”,
तो भारत राजनीति नहीं करेगा — सभ्यता का नवजागरण करेगा।

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