उदयपुर फाइल्स फिल्म विवाद : मीठा मीठा गप गप, कड़वा कड़वा थू थू
फ़िल्मों के माध्यम से जिहादी नैरेटिव का बीजारोपण
भारतीय सिनेमा दशकों से केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहा, बल्कि यह सामाजिक चेतना और वैचारिक दृष्टिकोण का भी निर्माण करता रहा है। लेकिन क्या इस माध्यम का उपयोग केवल सत्य के उद्घाटन के लिए हुआ है? कतई नहीं। सच यह है कि एक लंबी अवधि तक सलीम-जावेद जैसे स्क्रिप्ट राइटरों की जोड़ी ने—जो बॉलीवुड की सबसे सफल और प्रभावशाली लेखनी मानी जाती है—भारतीय समाज की मूल संरचना को तोड़ने और विकृत करने का गंभीर प्रयास किया।
इनकी लेखनी में ब्राह्मण समाज को चालाक, धूर्त और पाखंडी दिखाया गया। ठाकुरों को बलात्कारी और जुल्मी; बनिया (वैश्य) समाज को लालची और शोषक; जबकि मुस्लिम पात्रों को हमेशा धार्मिक, उदार, ईमानदार और देशभक्त के रूप में चित्रित किया गया। यह एक सुनियोजित नैरेटिव था, जो सॉफ्ट जिहाद का सबसे घातक और सांस्कृतिक संस्करण था—जिसका उद्देश्य था बहुसंख्यक हिंदू मानस को अपराधबोध में डालना और एक खास समुदाय को नैतिक ऊँचाई पर बैठाना।
कट्टरपंथी समाज और नैरेटिव कंट्रोल
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में हर किसी को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन क्या यह अधिकार बहुसंख्यकों के लिए भी समान है? जब-जब कोई निर्माता हिंदू पक्ष की पीड़ा, बहुसंख्यक समाज की त्रासदी या इस्लामिक कट्टरपंथ के वास्तविक स्वरूप को सामने लाने का प्रयास करता है, तब “घृणा फैलाने”, “धर्म विशेष को अपमानित करने” जैसे आरोप सामने आने लगते हैं।
CAA-NRC के समय “जिन्ना वाली आज़ादी”, “भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाअल्लाह” जैसे नारे लगे। दिल्ली में दंगे हुए। UAPA जैसे कानून लगाने पड़े। तब कोई 'घृणा फैलाने' की बात क्यों नहीं करता?
लेकिन जब 'द कश्मीर फाइल्स' या अब 'उदयपुर फाइल्स' जैसी फिल्में बनाई जाती हैं, जो कट्टरपंथी मानसिकता के क्रूर परिणामों को पर्दे पर लाने की कोशिश करती हैं, तो टुकड़े-टुकड़े गैंग, कट्टरपंथी संस्थाएं, अर्बन नक्सल और वामपंथी सहित तमाम तुष्टिकरण की राजनीतिक दलदल इसका विरोध करता है। क्यों?
उदयपुर फाइल्स: घटना और फिल्म का आधार
28 जून 2022 को राजस्थान के उदयपुर में टेलर कन्हैयालाल की बेरहमी से हत्या कर दी गई। यह हत्या इस्लाम के एक पैगंबर के समर्थन में सोशल मीडिया पोस्ट शेयर करने के कथित आरोप में की गई थी। हत्या का वीडियो खुद हत्यारों ने वायरल किया और इस्लामी जिहाद के नाम पर इसे जायज़ ठहराया।
यह एक सीधा-सादा धार्मिक आतंकवाद का मामला था। लेकिन इस पर बॉलीवुड चुप रहा, तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी मौन साधे रहे। कोई A-lister नहीं बोला। यही विषय अब 'उदयपुर फाइल्स' के रूप में फिल्म में सामने लाया गया है।
फिल्म का विरोध: क्या सत्य से डरते हैं कुछ लोग?
जैसे ही फिल्म 'उदयपुर फाइल्स' का ट्रेलर सामने आया, मुस्लिम संगठनों और कट्टरपंथी प्रवृत्तियों के लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। Jamiat Ulama-i-Hind ने अदालत का रुख किया और इस फिल्म को 'मुस्लिम विरोधी' करार दिया। उनकी दलील थी कि फिल्म से “एक वर्ग विशेष की भावनाएं आहत होंगी” और “सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ेगा।”
परंतु प्रश्न यह है कि:
जब सत्य को दिखाया जाए, तब “भावनाएं आहत” कैसे होती हैं?
क्या यह घटना सत्य नहीं है?
क्या यह हत्या धार्मिक कट्टरता के नाम पर नहीं हुई थी?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: केवल एकतरफा?
आज जो एक खास वर्ग हिजाब को “व्यक्तिगत स्वतंत्रता”, हलाला और तीन तलाक को “धार्मिक अधिकार” कहता है, वही वर्ग, जब किसी फिल्म में हिंदू पीड़ा औरकट्टरपंथ के आतंकी स्वरूप को दिखाया जाता है, तब “घृणा फैलाने” का हवाला देने लगता है।
सवाल ये भी है कि:
क्या भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब केवल वामपंथियों, कट्टरपंथी संगठनों और छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए रह गई है ?
क्या कट्टरपंथी विचारधारा के खिलाफ बोलना “हेट स्पीच” माना जाएगा?
बॉलीवुड की चुप्पी: चुनावी अवसरवाद या भय?
CAA-NRC विरोधी आंदोलन के समय शाहीन बाग के प्रदर्शन में बॉलीवुड के नामचीन चेहरे सड़क पर थे—स्वरा भास्कर से लेकर अनुराग कश्यप तक। लेकिन जब कन्हैयालाल की हत्या हुई, जब हिंदू पुजारी की हत्या हुई, तब ये सब चुप थे। क्यों?
क्योंकि हिंदू का जीवन और उसके अधिकार इनकी एजेंडा सूची में नहीं आते। इन्होंने दशकों तक केवल 'एकतरफा सहिष्णुता' का प्रचार किया।
क्या रोक लगनी चाहिए?
'उदयपुर फाइल्स' जैसी फिल्मों पर रोक की मांग करने वाले अगर Padmaavat, PK, OMG, Haider जैसी फिल्मों पर खामोश रहे, तो यह दोहरा रवैया है।
रोक लगनी चाहिए तो उन फिल्मों पर जो किसी धर्म विशेष को महिमामंडित करके उसकी सच्चाई छिपाती हैं—not on those that dare to expose the hard truths.
समाज को आईना दिखाना जरूरी है
इस्लामी आतंकवाद केवल एक धार्मिक संज्ञा नहीं, यह एक वैश्विक खतरा है। चाहे वो फ्रांस में हो, अफगानिस्तान में हो या उदयपुर में। इसे दिखाना, समझाना और सच के रूप में प्रस्तुत करना ज़रूरी है।
सच यह है कि यह फिल्म नफरत नहीं फैला रही, बल्कि नफरत की जड़ों को उजागर कर रही है। यह फिल्म किसी मज़हब के खिलाफ नहीं है, यह एक मानसिकता के खिलाफ है—जो कानून, लोकतंत्र और मानवाधिकारों की हत्या करती है।
निष्कर्ष: राष्ट्र पहले, एजेंडा बाद में
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। यहां पर हरेक को अपनी बात कहने और दिखाने का हक है, बशर्ते वह कानून के दायरे में हो। 'उदयपुर फाइल्स' कोई काल्पनिक कहानी नहीं, यह कट्टरपंथ के सच्चे और वीभत्स चेहरे का प्रतिबिंब है।
अगर सच्चाई को दिखाने पर फिल्म पर रोक लगती है, तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नहीं, सच्चाई पर प्रतिबंध होगा। सच पूछिए तो यही वह सच है, जो वामपंथी और कट्टरपंथी नहीं चाहते कि जनता जाने।
क्योंकि जैसे ही जनता असली चेहरों को पहचानने लगेगी, इनके झूठे नैरेटिव्स ढह जाएंगे।
लेखक: मनोज चतुर्वेदी शास्त्री
(यह लेख भारत की सामाजिक चेतना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा हेतु लिखा गया है।)






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