प्रज्ञा जी पहले यह समझिए कि "दलित हिन्दू" जैसा कोई शब्द ही नहीं है*

एक यूट्यूब चैनल है, "प्रज्ञा का पन्ना" जिसे कोई प्रज्ञा मिश्रा नामक सभ्य महिला चलाती हैं। इस चैनल पर "हिंदुस्तान में मुस्लिम धर्मांतरण पर बवाल। दलित हिंदुओं के बौद्ध होने पर चुप्पी" नामक शीर्षक से एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया जिसमें प्रज्ञा जी कहती हैं कि - "हिंदुओं के मुस्लिम बनने पर सरकार एक्शन लेती है लेकिन दलितों के बौद्ध बनने पर चुप्पी साध लेती हैं। प्रज्ञा जी कहती हैं कि हिंदूवादी सरकारों को हिन्दू-मुस्लिम वाले मुद्दे सूट करते हैं, क्योंकि इससे हिंदुत्व को खतरे में बताने में आसानी होती है और हिंदुत्व को खतरे में रखने से हिंदूवादी सरकारें ख़तरे से बाहर हो जाती हैं". यहां प्रज्ञा मिश्रा जी का यह मानना है कि देश में जो हिन्दू-मुस्लिम धर्मांतरण का मुद्दा है वह भाजपा का चुनावी प्रोपेगैंडा है। 

अब प्रज्ञा मिश्रा के सवाल पर आते हैं जिसमें वह कहती हैं कि मुस्लिम धर्मांतरण पर बवाल। दलित हिंदुओं के बौद्ध होने पर चुप्पी क्यों?

प्रज्ञा जी को शायद यह नहीं मालूम कि "दलित हिन्दू" जैसा कोई जाति/सम्प्रदाय/धर्म पूरे भारत में कहीं नहीं है। यह शब्द "बौद्धिक जिहादियों", अरबन नक्सलियों और हिन्दू विरोधियों के शब्दकोष की देन है। 
दूसरी बात यह है कि बौद्ध, सिख, जैन कोई धर्म नहीं हैं बल्कि पंथ हैं, मत हैं। यह सभी सनातन धर्म के अंग हैं। यह विशुद्ध भारतीय हैं, इनके तीर्थ स्थल, महापुरुष, प्रवर्तक आदि सभी इस भारत भूमि पर जन्मे हैं। जबकि इस्लाम, ईसाई, पारसी और यहूदी विदेशी धर्म/मत हैं। इस्लाम का जन्म अरब से हुआ और इस्लामिक पीर-पैगम्बर, तीर्थस्थल, रीति-रिवाज़ और परम्पराएं सभी विदेशी आक्रांताओं और व्यापारियों के द्वारा भारत लाई गईं।

मुस्लिम समाज का पहनावा, तीज-त्यौहार, परम्पराएं, संस्कृति, सभ्यता, खानपान, भाषा, रहन-सहन, मान्यताएं, महापुरुष और यहां तक कि उनका इतिहास भी हिंदुओं से बिल्कुल अलग है। मुस्लिम समुदाय जिस बाबर, औरंगजेब, तैमूर लंग, अकबर और टीपू को अपना नायक मानता है, वहीं हिन्दू समाज उन्हें खलनायक मानता है। पाकिस्तान का बंटवारा मज़हब के आधार पर ही हुआ था।
जबकि महात्मा बुद्ध को हिन्दू समाज में एक अवतार पुरुष माना गया है। प्रज्ञा जी को शायद इसपर भी अध्ययन करना चाहिए कि आख़िर दलितों के महानायक डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस्लाम या किसी अन्य विदेशी धर्म को क्यों नहीं अपनाया था? इस प्रश्न का सही जवाब डॉ. आंबेडकर के लेख ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ में मिलता है. मूलरूप में यह लेख अंग्रेजी में बुद्धा एंड दि फ्यूचर ऑफ हिज रिलिजन (Buddha and the Future of his Religion) नाम से यह कलकत्ता की महाबोधि सोसाइटी की मासिक पत्रिका में 1950 में प्रकाशित हुआ था. यह लेख डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राटिंग्स एंड स्पीचेज के खंड 17 के भाग- 2 में संकलित है.  प्रज्ञा जी को यह भी रिसर्च करनी चाहिए कि इस्लाम को लेकर बाबा भीमराव अंबेडकर ने क्या विचार रखे हैं। बाबा साहेब ने सनातन संस्कृति का परित्याग नहीं किया था बल्कि हिन्दू समाज में फैले पाखंड, आडम्बर और भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध किया था। इसीलिए उन्होंने बौद्ध मत को अपनाया ताकि सनातन संस्कृति से उनके सम्बन्ध कभी समाप्त न हों। ऐसा कहा जाता है कि बाबा साहेब का मानना था कि "दलितों को धर्मांतरण करके मुस्लिम मजहब नहीं अपनाना चाहिए, क्योंकि इससे मुस्लिम प्रभुत्व का ख़तरा वास्तविक हो जाएगा।"

प्रज्ञा मिश्रा जैसे लोग अपने अधकचरे ज्ञान और कुतर्कों द्वारा भले ही आम जनता को भ्रमित करने का कुप्रयास करते हों परन्तु ऐतिहासिक तथ्यों और अनुभवों को वह कभी नहीं झुठला पाएंगे। सत्य सदा सनातन है, और  रहेगा।

🖋️ *मनोज चतुर्वेदी "शास्त्री"*
समाचार सम्पादक- उगता भारत हिंदी समाचार-
(नोएडा से प्रकाशित एक राष्ट्रवादी समाचार-पत्र)

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