समाजवाद बनाम जातिवाद की राजनीति
समाजवादी आंदोलन की शुरुआत आजादी
की लड़ाई के दौरान ही हो गई थी। समाजवादी तब कांग्रेस पार्टी का हिस्सा थे और 1934 में कांग्रेस के भीतर ही कांग्रेस
सोसलिस्ट पार्टी बनाकर एक दबाव समूह के रूप में उभरे। जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, बसावन सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, मीनू मसानी, अशोक मेहता और राममनोहर लोहिया
इसके प्रमुख नेताओं में से थे। आजादी के बाद समाजवादियों ने कांग्रेस को छोड़कर
सोसलिस्ट पार्टी का गठन किया।
1952 के लोकसभा चुनावों में सोसलिस्ट
पार्टी की करारी हार के बाद जयप्रकाश नारायण राजनीति छोड़कर सर्वोदय आंदोलन में
चले गए। बाद के दिनों में सोसलिस्ट पार्टी कई भागों में बंट गई। जन-आंदोलन में
सोसलिस्टों का प्रभाव बढ़ा, लेकिन वे
कभी भी बड़ी पार्टी नहीं बना पाए। समाजवादी नेताओं में डॉ. राममनोहर लोहिया की अलग
पहचान बनी। आाजादी के बाद जब राजनीति पर सवर्ण जातियों का दबदबा था, तब लोहिया ने पिछड़ी जातियों के
लिए सैकड़े में 60 का नारा
दिया।
मतलब यह कि दलित और आदिवासियों की
तरह पिछड़ों को भी आबादी के हिसाब से राजनीति और नौकरियों में 60 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए।
लोहिया की यह पहल 90 के दशक में
कुछ हद तक पूरी हुई, जब पिछड़ों
के लिए भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की गई। लोहिया ने पिछड़ों के
आरक्षण और गैर-कांग्रेसवाद का जो नारा दिया, उसी ने आगे चलकर, खासकर 1974-75 के आंदोलन के बाद पिछड़ों के नए
नेतृत्व को जन्म दिया।
लालू, मुलायम, नीतीश और शरद जैसे नेता
लोहियावादी राजनीति की ही उपज है। राजनीति में आरक्षण नहीं मिलने के बावजूद
संख्याबल पर पिछड़ों की राजनीति में दबदबा कायम कर लिया। सवर्ण दबदबा को तोड़कर
पिछड़े वर्ग को राजनीति का अगुआ बनाने की जो कोशिश लोहिया ने शुरू की थी वह आज
जातिवाद के दलदल में फंसा दिखाई दे रहा है।
उत्तर भारत में पिछड़ों के सबसे बड़े और सक्षम
समूह यादव आज राजनीति के केंद्र में तो पहुंच गए हैं, लेकिन उनके
नेता जातिवादी तिकड़म और जोड़तोड़ में उलझ कर टूट गए हैं। कुल मिलाकर विचारधारा पर
जातिवादी हावी हो गया है। आज के लोहियावादी या समाजवादी अपने मूल मकसद से भटक कर
हर हाल में सत्ता पर कब्जा बनाए रखने की कोशिश में हैं, वर्तमान में जबसे नरेंद्र मोदी सत्ता में आए
हैं तभी से वे लोग ज्यादा सक्रिय हो गए हैं जो हिंदू धर्म के विरोधी हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी और आरएसएस का विरोधी होना समझ में आता है
लेकिन हिन्दू और भारत का विरोधी होना यह समझ से परे है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ
चाहे कुछ भी हो लेकिन इस देश में कभी भी धर्मनिरपेक्ष राजनीति नहीं हुई है।
धर्मनिरपेक्ष दलों ने सबसे ज्यादा जातिवादी राजनीतिक की है। इसके कई उदाहरण
प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
भारत के इस दौर
में नया तबका पैदा हो गया है जिसको भारतीय धर्म और इतिहास की जरा भी जानकारी नहीं
है। जिसमें 20
से 35 साल के युवा, अनपढ़ और गरीब ज्यादा हैं। इतिहास और धर्म की जानकारी से इन अनभिज्ञ लोगों को षड़यंत्रों
के संबंध में बताना थोड़ा मुश्किल ही होगा क्योंकि दलितों की आड़ में जाति और धर्म
की राजनीति करने वाले नेता बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तो इन अनभिज्ञ लोगों को अच्छा
लगता है। वे सभी इनके बहकावे में आ जाते हैं। भड़काकर ही धर्मांतरण या राजनीतिक
मकसद को हल किया जा सकता है।
वर्तमान में
नवबौद्धों द्वारा बुद्ध के शांति संदेश के बजाय नफरत को ज्यादा प्रचारित किया जा
रहा है। इसमें उनका मकसद है हिन्दू दलितों को बौद्ध बनाना। नवबौद्धों को भड़काने
में वामपंथी और कट्टर मुस्लिम संगठनों का हाथ भी निश्चित तौर पर देखा जा सकता है।
साम्यवाद,
समानता और
धर्मनिरपेक्षता की बातों को प्रचारित करके उसकी आड़ में जो किया जा रहा है वह किसी
से छुपा नहीं है।
ध्यकाल में जबकि
मुस्लिम और ईसाई धर्म को भारत में अपनी जड़े जमाना थी तो उन्होंने इस जातिवादी
धारणा का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और इसे और हवा देकर समाज के नीचले तबके
के लोगों को यह समझाया गया कि आपके ही लोग आपसे छुआछूत करते हैं। मध्यकाल में
हिन्दू धर्म में बुराईयों का विस्तार हुआ। कुछ प्रथाएं तो इस्लाम के जोरजबर के
कारण पनपी,
जैसे सतिप्रथा, घर में ही पूजा घर बनाना, स्त्रीयों को घुंघट में रखना आदि।
मुगलों के बाद
अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो की नीति' तो 1774 से ही चल रही थी जिसके तहत हिंदुओं में ऊंच-नीच और प्रांतवाद की भावनाओं का
क्रमश: विकास किया गया अंतत: लॉर्ड इर्विन के दौर से ही भारत विभाजन के स्पष्ट बीज
बोए गए। माउंटबैटन तक इस नीति का पालन किया गया। बाद में 1857 की असफल क्रांति के बाद से अंग्रेजों ने भारत
को तोड़ने की प्रक्रिया के तहत हिंदू और मुसलमानों को अलग-अलग दर्जा देना प्रारंभ
ही नहीं किया बल्कि दोनों की कौम के भीतर अपने ही लोगों से छुआछूत करने की भावना
को भी पनपाया।
हिंदुओ को
विभाजित रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश राज में हिंदुओ को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। ग्रंथ खंगाले
गए और हिंदुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाप देकर उन्हों स्पष्टतौर पर जातियों
में बांट दिया गया। इतना ही नहीं 1891 की जनगणना में केवल चमार की ही लगभग 1156 उपजातियों को रिकॉर्ड किया गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज तक
कितनी जातियां-उपजातियां बनाई जा चुकी होगी। इसके अलावा 'पदियां' देकर ऐसे कई लोगों को अपने पक्ष में किया जिन्होंने बाद में अंग्रेजों के लिए
काम किया,
उनके लिए भारतीयों
के खिलाफ ही युद्ध लड़ा या षड़यंत्र रचा।
आजादी के बाद
आरक्षण और पद देकर यही काम हमारे राजीतिज्ञ करते रहे। उन्होंने भी अंग्रेजों की
नीति का पालन किया और आज तक हिन्दू ही नहीं मुसलमानों को भी अब हजारों जातियों में
बांट दिया। बांटो और राज करो की नीति के तहत आरक्षण, फिर जातिगत जनगणना,
हर तरह के फार्म
में जाति का उल्लेख करना और फिर चुनावों में इसे मुद्दा बनाकर सत्ता में आना आज भी
जारी है।
एक समय था जब आर्थिक सुदृढ़ीकरण देश के विकास की धुरी था. विशेषकर देश की आजादी के समय. तब आर्थिक उन्नति
को लेकर नई–नई योजनाएं बनाई जा रही थीं. इन दिनों सामाजिक न्याय जैसी समसामयिक अवधारणा विकास के साथ जुड़ चुकी है. विकास हो और उसका लाभ देश के सभी वर्गों तक पहुंचेꟷ˹ऐसी अपेक्षा की जाती है. सामाजिक न्याय के संघर्ष में जाति एक तात्कालिक माध्यम बन सकती है. लेकिन यह एकदम आसान भी नहीं है. जाति की
अवधारणा ही अपने आप में नकारात्मक है. अतएव जाति को
औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे वर्गों और समूहों को समझना चाहिए कि औजार केवल माध्यम
होता है. वह लक्ष्य को अपेक्षाकृत सुगम तो बनाता है, लेकिन स्वयं लक्ष्य नहीं होता. इसलिए
अस्मितावादी आंदोलनों की मूल प्रवृत्ति छोटे जाति–समूहों को
बड़े जाति समूहों में ढालने, जन से बहुजन और बहुजन से
सर्वजन की ओर ले जाने वाली होनी चाहिए. ऐसा होगा, तभी जाति के कलंक से मुक्ति पाई जा सकती है. सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद का सामना वैकल्पिक जनसंस्कृति और श्रमसंस्कृति के उभार द्वारा आसानी से
किया जा सकता है. वह ऐसी संस्कृति होगी जिसमें लोग धर्म
के आधार पर नहीं हितों की समानता के आधार पर एकजुट होंगे तथा परस्पर सहयोग करते
हुए आगे बढ़ेंगे. उस समय धर्म और उसपर टिकी विभेदक
संस्कृति उनके रास्ते के सबसे बड़े अवरोधक होंगे. तब यह
याद रखना उन्हें विशेष बल देगा कि प्रकृति ने अधिकार तो सभी को दिए हैं, बराबर दिए हैं, मगर विशेषाधिकार संपन्न किसी को
भी नहीं बनाया है.





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