गांधीवाद के खोखले अहिंसावादी आदर्शों की आड़ में कब तक छुपोगे

महात्मा गांधी ने कहा था कि "कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुम दूसरा गाल आगे कर दो". हमने उनके उस सिद्धान्त को अपना लिया और उसका नतीजा यह निकला कि 1947 से आज तक हम दोनों गालों पर कई बार थप्पड़ खा चुके हैं। बापू के अहिंसात्मक सिद्धान्त को हमने इतनी गम्भीरता से लिया कि हम कब नपुसंक हो गए यह हमें अभीतक समझ ही नहीं आया। हम शठे शाठ्यम समाचरते के नियम को भूल गए और हर बार थप्पड़ खाकर अपना गाल आगे करते गए। जिसके कारण पाकिस्तान जैसा दो कौड़ी का मुल्क जिसकी हमारे सामने कोई औक़ात न थी उसने भी हम पर कई बार हमला बोल दिया। 1948 से लेकर आज तक हम अपने वीर जवानों और भाई-बहनों की आहुति इस "गांधीवादी अहिंसात्मक यज्ञ" में चढ़ा चुके हैं। 

इंग्लिश में एक कहावत है "अटैक इज द बैस्ट डिफेंस" अर्थात आक्रमण ही सबसे अच्छी रक्षात्मक रणनीति है। परन्तु बापू ने तो हमें रक्षात्मक रहना भी नहीं सिखाया, उन्होंने तो केवल पिटना सिखाया। हम आक्रमण तो छोड़िए अब तो हम रक्षात्मक होना भी भूल गए। कभी चीन, कभी पाकिस्तान और अब तो नेपाल जैसा देश जिसको कल तक हिन्दुराष्ट्र का दर्जा मिला हुआ था वह भी हमें आंख दिखाने लगा है और दिखाए भी क्यों नहीं, हम ही ने तो उसे इस लायक बनाया। हमने दानवीरता दिखाते हुए चीन को 43000 वर्ग किमी भूमि दान में दे दी, अति उदारता का परिचय देते हुए पाकिस्तान को उसकी जीती हुई ज़मीन वापस लौटा दी और अपनी गंवा दी। क्यों? ये कोई नहीं जानता, शायद खुद गांधी परिवार के पास भी इन प्रश्नों के उत्तर न हों। 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी लंका पर चढ़ाई की थी, औऱ माता सीता को रावण के चंगुल से स्वतंत्र कराया था। योगपुरुष श्रीकृष्ण ने भी शिशुपाल पर सुदर्शन चक्र चलाया था, उन्होंने भी कंस का वध किया था। देवी दुर्गा ने भी परम आततायी महिषासुर को मृत्यु के घाट उतारा था। हमारे समस्त देवी-देवताओं के हाथों में जो अस्त्र-शस्त्र धारण कराए गए हैं वह इस बात का प्रतीक हैं कि आवश्यकता पड़ने पर उनका सदुपयोग किया ही जाना चाहिए। परन्तु 1947 के बाद से कांग्रेस और वामपंथियों ने हमारे पूर्वजों और देवी-देवताओं का मज़ाक बनाया, हमारी सभ्यता को पिछड़ा और जंगली बताया। हमें बताया गया कि महात्मा  गांधी ने बिना खड्ग, बिना ढाल के अंग्रेजों को भगा दिया और हम मूर्ख इस बात पर विश्वास भी करते हैं कि वास्तव में ऐसा ही हुआ होगा। बहुत चालाकी के साथ स्वतंत्र भारत का नायक गांधी और नेहरू को बना दिया गया जबकि काला पानी की सज़ा काटने वाले वीर सावरकर जैसे सच्चे और ईमानदार राष्ट्रभक्तों को खलनायक का दर्जा दे दिया गया।

हम कब तक यूं ही अपने वीर जवानों की शहादत पर आंसू बहाते रहेंगे, हम कब तक विश्वगुरु बनने के ख्याली पुलाव पकाते रहेंगे, आखिर कब तक हम कड़ी निंदा और आलोचना की चादर ओढ़कर अपना मुहं छुपाते रहेंगे? हम कब तक गांधीवाद के खोखले और अप्रासंगिक नियमों और सिद्धांतों की वेदी पर अपनी और अपनों की बलि चढ़ाते रहेंगे.

*-मनोज चतुर्वेदी "शास्त्री"*

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