आखिर कब तक हमें ज़कात और ख़ैरात पर पलने वाले अरेबियन टट्टुओं की धमकियां सुननी होंगी
दिल्ली अल्पसंख्यक बोर्ड के अध्यक्ष जफरुल इस्लाम खान ने सारी हदें पार करते हुए जिस मानसिकता का परिचय दिया है वह न केवल एक बेहदव गम्भीर विषय है अपितु भारत के तथाकथित सेक्युलरवादी विचारधारा का घिनौना और घृणास्पद चेहरा भी है।
जफरुल इस्लाम खान ने अपनी पोस्ट में जो लिखा है वह यह स्पष्ट करने के लिये काफी है कि इस देश में अभी भी जयचन्दों की कोई कमी नहीं है।
तथाकथित सेक्युलर जफरुल इस्लाम खान अपनी पोस्ट में लिखते हैं-
"भारतीय मुस्लिमों के साथ खड़े होने के लिए कुवैत का धन्यवाद। हिंदुत्व विचारधारा के लोग सोचते हैं कि कारोबारी हितों की वजह से अरब देश भारत के मुस्लिमों की सुरक्षा की चिंता नहीं करेंगे, लेकिन वो नहीं जानते हैं कि भारतीय मुस्लिमों के अरब और मुस्लिम देशों से कैसे रिश्ते हैं। जिस दिन मुसलमानों ने अरब देशों से अपने खिलाफ जुल्म की शिकायत कर दी, उस दिन जलजला आ जाएगा।"
यह पोस्ट 28 अप्रैल की रात को लिखी गई है।
इस पोस्ट को पढ़ने के बाद यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ज़कात और ख़ैरात के दम पर पलने वाला एक कथित बुद्धिजीवी पाकिस्तानी प्रोपगंडा गैंग भारत की सनातन संस्कृति, सभ्यता और परम्परा के रक्षकों को खुलेआम धमकियां दे रहा है।
दरअसल यह वही मानसिकता है जिसका ज़िक्र बाबा भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक "थॉट्स ऑन पाकिस्तान" में किया है। यह वही मानसिकता है जो भारत के हिंदुओं को अरबियों का गुलाम मानती है, यह वही मानसिकता है जो विदेशी मुस्लिम आक्रान्ताओं को अपना आका कहती है, जिसके लिए श्रीराम, श्रीकृष्ण, गुरु नानक और महात्मा बुद्ध केवल एक काल्पनिक चरित्र हैं, क्योंकि यह बाबर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान, अलाउद्दीन खिलजी और तैमूर लँगड़े को अपना आदर्श मानती है।
मुगलकालीन सभ्यता में विश्वास रखने वाले कुछ लोग आज भी यह मानते हैं कि उनके पूर्वज मुगल थे जिन्होंने इस देश पर हुक़ूमत की है और अंग्रेजों के कारण उनसे हुक़ूमत छीन ली गई, इस मानसिकता के लोग भारत में रहने वाले हिन्दुओ को हेय दृष्टि से देखते हैं क्योंकि वह लोग इन्हें अपना ग़ुलाम मानते हैं।
ऐसे लोग कभी भी हिन्दू और हिंदुत्व विचारधारा को ह्रदय से स्वीकार नहीं कर सकते।
केवल लोक दिखावे के लिए भले ही गले में सेक्युलरिज्म का ढोल पीटते घूमें लेकिन वास्तविक मानसिकता वही है जो कि जफरुल इस्लाम खान और जावेद अख़्तर जैसे कथित बुद्धिजीवियों की पोस्ट और बयानों से साफ झलकती है।
परन्तु प्रश्न इन मुट्ठीभर लोगों की मानसिकता का नहीं है, प्रश्न हमारी सरकार पर है, कि आखिर हम कब तक धृष्टराष्ट्र बनकर इन दुर्योधन और दुःशासन के द्वारा हमारी संस्कृति और सभ्यता का अपमान होते देखते रहेंगे।
कहीं हम शांति और अहिंसा की आड़ में अपनी कायरता को छुपाने का असफल प्रयास तो नहीं कर रहे?





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