कौवा ऊंचाई पर बैठने से कबूतर नहीं बन जाता

एक फ़िल्म थी पुलिस-पब्लिक, उसमें महान अभिनेता स्वर्गीय राजकुमार साहब का एक यादगार डायलॉग था- जानी, कौवा ऊँचाई पर बैठने से कबूतर नहीं बन जाता". यह डायलॉग मैंने इसलिए लिखा क्योंकि चांदपुर में कुछ कौवे अपने आकाओं के मकानों की अटारियों पर बैठकर अपने को कबूतर समझने लगे हैं। उन्हें यह नहीं पता कि "जूता कितना भी साफ-सुथरा क्यों न हो पहना हमेशा पैर में ही जाता है, और पगड़ी कितनी भी पुरानी और गन्दी क्यों न हो जाये हमेशा सर पर रखी जाती है।"

हमारे कहने का आशय यह है कि विद्वान व्यक्ति का सम्मान हमेशा और हर स्थान पर होता है, लेकिन मूर्ख कितना भी बड़े पद पर बैठा हो उसे सम्मान नहीं मिल पाता। लेकिन चांदपुर के कुछ छुटभैये नेता और एक नेत्री को यह बात समझ  नहीं आ रही।

दरअसल चांदपुर की राजनीति में आजकल एक नया वर्ग पनप रहा है जिनके पास न राजनीति का अनुभव है और न ही कोई व्यवहारिक ज्ञान है, सिवाय इसके कि उन्होंने किसी पार्टी विशेष या कामयाब नेता की चमचागिरी करके, उसके कार्यक्रमों में दरियां उठा-बिछा कर अपने नाम के आगे "नेताजी" का लक़ब लगवा लिया है, यूं कहिए कि वह स्वयंभू नेता बन बैठे हैं। उनके कुछ चेले-चपाटे भले ही उन्हें महान विभूति और राजनीतिज्ञ क्यों न मानते हों लेकिन ये पब्लिक है, ये सब जानती है।

आप सिर्फ इसलिये पब्लिक की पहली पसंद नहीं हो सकते कि आप एक धर्म विशेष या पार्टी विशेष के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर ज़हर उगलते हैं। बल्कि उसके लिए आपको धरातल पर जनता-जनार्दन के बीच अपनी पहचान बनानी होती है, जनता की समस्याओं को सुनना और समझना होता है और उन्हें सुलझाने का हरसम्भव प्रयास भी करना होता है। लेकिन यह बात इन नए-नए राजनीतिक रंगरूटों को कौन समझाए। राजनीतिक रंगरूटों का यह नया वर्ग जनता को यह कहकर बरगलाने में लगा हुआ है कि CAA को लेकर स्थानीय नेताओं ने कोई विशेष कदम नहीं उठाए और न ही धरना-प्रदर्शन में कोई खास सहयोग किया गया। 
अगर इन लोगों की मानी जाए तो इनके हिसाब से चांदपुर में अन्य शहरों की अपेक्षा CAA का विरोध बहुत फीका हुआ और उसके लिये स्थानीय नेताओं की कथित "बुजदिली" जिम्मेदार है।

उधर जनता दबे शब्दों में इन लोगों को पानी पी-पीकर कोस रही है और यह मान रही है कि चांदपुर में किसी भी कारण से अमन-चैन नहीं बिगड़ना चाहिए। और जनता का मानना है कि समय आने पर इन "राजनीतिक रंगरूटों" को सबक जरूर सिखाया जाएगा। 

2022 के चुनावों में यह बात सबकी समझ में आ जाएगी कि नया नौ दिन औऱ पुराना सौ दिन होता है,  शहर की जनता आज भी उन्हीं लोगों के बीच अपने प्रतिनिधी को ढूंढ रही है जिसको उसने 2017 में कहीं छोड़ दिया था।

चलिए देखते हैं कि चांदपुर की जनता इन "नए राजनीतिक रंगरूटों" को क्या सबक सिखाती है।

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