आज कमलेश तिवारी, कल किसकी बारी: छद्म सेकुलरिज्म की अग्नि में मां भारती के सच्चे सपूतों की यह आहुति कब तक दी जाती रहेगी
धन्य है वह मां
जिसकी कोख से कमलेश तिवारी जैसा मां भारती का लाल पैदा हुआ और कोटि-कोटि नमन है उस
पिता को जिसके ओज से हिंदुत्व के सच्चे और निर्भीक एक ऐसे सपूत का जन्म हुआ जिसने
सनातन संस्कृति और सभ्यता की रक्षा और मान के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए.
श्रधेय स्वामी श्रद्धानंद के अमर बलिदान के पश्चात कमलेश तिवारी का यह बलिदान सनातन
समाज के इतिहास में सदा-सदा के लिए स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो गया है. लेकिन अहो
दुर्भाग्य, कि इतने महान बलिदानों के पश्चात् भी हमारा सनातन समाज कुंभकर्ण की नींद सोया
हुआ है. न जाने कितने निर्दोष संत और महात्माओं की बलि और होनी शेष है, न जाने कितने
घरों के चिराग अभी और बुझने हैं, यह तो परमात्मा ही भली प्रकार जानता है. क्या
हमारी नींद अभी भी नहीं खुलेगी, क्या अब भी हम चैन की नींद सोते रहेंगे. आखिर
कितने श्रध्दानन्द, कितने कमलेश तिवारी हिंदुत्व की रक्षा के लिए अपने प्राण
न्योछावर करेंगे और कब तक? यह एक यक्ष प्रश्न है. जिसका उत्तर हमें स्वयं तलाशना
होगा.
गले में सेक्युलरिज्म का ढोल लटकाए एक बाइक चोर के मरने पर मॉबलिंचिंग की आड़
में खुलेआम सडकों पर उपद्रव मचाने वाले, भारत को असहिष्णु बताने वाले, देश-विदेश
में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का मजाक बनाने वाले, अब मौनव्रत धारण क्यों किये
बैठे हैं? क्या सिर्फ इसलिये कि मरने वाला कमलेश तिवारी था, तबरेज अंसारी नहीं. हम
किसी भी दृष्टिकोण से हुतात्मा कमलेश तिवारी के इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद साहब के
विरुद्ध दिए गए तथाकथित बयान का समर्थन कदापि नहीं कर सकते, किन्तु इस प्रकार से
किसी की हत्या करना कहाँ तक उचित ठहराया जा सकता है. जो लोग नाथूराम गोडसे को
गाँधी की हत्या के लिए आज तक कोसते हैं वही लोग स्वामी श्रद्धानन्द और अब कमलेश
तिवारी की हत्या पर चुप्पी क्यों साधे हैं?
आपने एक गाँधी खोया है, हमने स्वामी
श्रध्दानन्द, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और अब कमलेश
तिवारी सहित न जाने कितने मां भारती के लालों को असमय काल के गाल में समाते हुए
देखा है. यह कैसी विडम्बना है कि हम अपने ही देश में, अपने ही घर में सुरक्षित
नहीं हैं, यह कैसा दुर्भाग्य है कि हिंदूवादी सरकारों के होते हुए भी वहशी दरिन्दे
हिंदुत्व के एक सच्चे सिपाही का दिनदहाड़े उसके ही घर में उसका गला रेत जाते हैं और
हम सांप निकलने के बाद लकीर पीटने में लग जाते हैं.
हम सडकों पर
आवारा घूमती हुई गायों की रक्षा के लिए तो बड़े-बड़े उपायों और दावों की बात करते
हैं लेकिन सनातन संस्कृति, सभ्यता और विश्वास की रक्षा करने वालों को उनके ही घरों
में सुरक्षा दे पाने में अपने आप को पूर्णतया असहज पा रहे हैं. छद्म सेकुलरिज्म की
अग्नि में मां भारती के सच्चे सपूतों की यह आहुति कब तक दी जाती रहेगी, आखिर कब
तक?










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