अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराजा अग्रसेन एक क्षत्रिय सूर्यवंशी राजा थे

अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराजा अग्रसेन एक क्षत्रिय सूर्यवंशी राजा थे. अतः यह समाज भी सूर्यवंश से ही सम्बन्ध रखता है. वैवस्वत मनु से ही सूर्यवंश की स्थापना हुई थी. महाराजा अग्रसेन ने प्रजा की भलाई के लिए कार्य किया था. इनका जन्म द्वापर युग के अंतिम भाग में महाभारत काल में हुआ था. ये प्रतापनगर के राजा वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे. वर्तमान २०१६ के अनुसार उनका जन्म आज से करीब ५१८७ साल पहले हुआ था. अपने नए राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया. इसी दौरान उन्हें एक जगह शेर तथा भेड़िये के बच्चे एक साथ खेलते मिले. उन्हें लगा कि यह देवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है. वह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास थी. उसका नाम अग्रोहा रखा गया. आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए तीर्थ के समान है. यहाँ महाराज अग्रसेन और मां वैष्णव देवी का भव्य मंदिर है. महाराज ने अपने राज्य को १८ गणों में विभाजित कर अपने १८ पुत्रों को सौंप उनके १८ गुरुओं के नाम पर १८ गोत्रों की स्थापना की थी. हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे.
अग्रवाल समाज के कुल गोत्र- गर्ग, गोयल, गोयन, बंसल, कंसल, सिंघल, मंगल, जिंदल, तिन्गल, एरण, धारण, मधुकुल, बिंदल, मित्तल, तायल, भंदल, नागल और कुच्छल
माना जाता है कि राजा पुरु के वंशज पोरवाल कहलाये. राजा पुरु के चार भाई कुरु, यदु, अनु और द्रहू थे. यह सभी अत्रिवंशी हैं, क्योंकि राजा पुरु भी अत्रिवंशी थे. बीकानेर तथा जोधपुरा राज्य (प्रग्वाट प्रदेश) के उत्तरी भाग जिसमें नागौर आदि परगने हैं, जांगल प्रदेश कहलाता था. जांगल प्रदेश में पोरवालों का बहुत अधिक वर्चस्व था. विदेशी आक्रमणों से, अकाल, अनावृष्टि और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने के कारण अपने बचाव के लिए एवं आजीविका हेतु जांगल प्रदेश से पलायन करना आरंभ कर दिया. अनेक पोरवाल अयोध्या और दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए. मध्यकाल में राजा टोडरमल ने पोरवाज जाति के उत्थान और सहयोग के लिए बहुत सराहनीय कार्य किया था जिसके चलते पोरवालों में उनकी कीर्ति है. दिल्ली में रहने वाले पोरवाल “पुरवाल” कहलाये जबकि अयोध्या के आसपास रहने वाले “पुरवार” कहलाये. इसी प्रकार सैंकड़ों परिवार वर्तमान मध्यप्रदेश के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र (मालवांचल) में आकर बस गये. यहाँ ये पोरवाल व्यवसाय/व्यापर और कृषि के आधार अलग-अलग समूहों में रहने लगे. इन समूह विशेष को एक समूह नाम (गोत्र) दिया जाने लगा और ये जांगड़ा पोरवाल कहलाये. राजस्थान के रामपुरा के आसपास का क्षेत्र और पठार आमद कहलाता था. आमद्गढ़ में रहने के कारण इस क्षेत्र के पोरवाल आज भी आमद पोरवाल कहलाते हैं.
किसी समूह विशेष में जो पोरवाल लोग अगवानी करने लगे वे चौधरी नाम से सम्बोधित होने लगे. जो लोग हिसाब-किताब, लेखा-जोखा, आदि व्यावसायिक कार्यों में दक्ष थे वे मेहता कहलाये. यात्रा आदि सामूहिक भ्रमण, कार्यक्रमों के अवसर पर जो लोग अगुआई करते और अपने संघ-साथियों की सुख-सुविधा का ध्यान रखते थे वे संघवी कहलाये. खुले हाथों से दान करने वाले दानगढ़ कहलाये. असामियों से लेन-देन करने वाले, धन उपार्जन और संचय में दक्ष परिवार सेठिया और धन वाले धनोतिया पुकारे जाने लगे. कलाकारी में निपुण परिवार काला कहलाये, राजा पुरु के वंशज पोरवाल और अर्थव्यवस्थाओं को गोपनीय रखने वाले गुप्त या गुप्ता कहलाये.
ऋषि मरीचि के पुत्र कश्यप थे. डॉ. मोतीलाल भार्गव द्वारा लिखी पुस्तक “हेमू और उसका युग” से पता चलता है कि दूसर वैश्य हरियाणा में दूसी गाँव के मूल निवासी हैं, जोकि गुरुगांव जनपद के उपनगर रिवाड़ी के पास स्थित है.
खंडेलवाल के आदिपुरुष हैं खांडल ऋषि. एक मान्यता के अनुसार खंडेला के सेठ धनपत के ४ पुत्र थे. खंडू, महेश, सुंडा और बीजा. इनमें से खंडू से खंडेलवाल हुए, महेश से महेश्वरी हुए, सुंडा से सरावगी व बीजा से विजयवर्गी. खंडेलवाल वैश्यों के ७२ गोत्र हैं. गोत्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यही धारणा है कि जैसे-जैसे समाज में बढ़ोत्तरी हुई, स्थान, व्यवसाय, गुण विशेष के आधार पर गोत्र होते गए.
उपरोक्त लेख “वेबदुनिया” में प्रकाशित मूल लेख “हिन्दुओं के प्रमुख वंश....” के सम्पादित अंश हैं. मूल लेखक- अनिरुद्ध जोशी ‘शतायु”            
सम्पादन - मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”

Comments

Disclaimer

The views expressed herein are the author’s independent, research-based analytical opinion, strictly under Article 19(1)(a) of the Constitution of India and within the reasonable restrictions of Article 19(2), with complete respect for the sovereignty, public order, morality and law of the nation. This content is intended purely for public interest, education and intellectual discussion — not to target, insult, defame, provoke or incite hatred or violence against any religion, community, caste, gender, individual or institution. Any misinterpretation, misuse or reaction is solely the responsibility of the reader/recipient. The author/publisher shall not be legally or morally liable for any consequences arising therefrom. If any part of this message is found unintentionally hurtful, kindly inform with proper context — appropriate clarification/correction may be issued in goodwill.