*मनुस्मृति-महत्ता, रचयिता, काल एवं आद्यरूप-भाग 2

मनु की वेदों के प्रति गहन श्रद्धा है। वे वेदों को अपौरुषेय मानते हैं। क्योंकि वेदज्ञान अपौरुषेय होने से निर्भ्रांत ज्ञान है, धर्म का मूल स्रोत है एवं परम प्रमाण है; अतः वह कुतर्कों द्वारा खण्डनीय नहीं है। जो कुतर्क आदि का आश्रय लेकर वेदज्ञान का खंडन, अवमानना या निंदा करता है, उसे वे "नास्तिक" जैसे तिरस्कारपूर्ण शब्द से सम्बोधित करते हैं-

"श्रुति और स्मृति ग्रन्थों की किसी भी अवस्था में आलोचना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन्हीं से धर्म की उत्पत्ति हुई है। वही धर्म के मूल स्रोत हैं।
जो व्यक्ति तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर कुतर्क आदि से उनकी अवमानना- निंदा करता है, तो साधु-श्रेष्ठ लोगों को चाहिए कि उसे समाज से बहिष्कृत कर दें; क्योंकि वेद की निंदा करने वाला वह व्यक्ति नास्तिक है।

मनुस्मृति को गौरव प्रदान कराने वाले कारणों में यह कारण भी विशेष स्थान रखता है कि मनु अपने समय के एक प्रख्यात, तत्वदृष्टा, धर्मवेत्ता ऋषि थे और अपने समय में धर्मनिष्ठ, न्यायकारी प्रजाप्रिय शासक रहे थे। इसका प्रमाण मनुस्मृति की भूमिका में उल्लिखित वचनों से मिलता है। जिज्ञासु ऋषियों ने धर्मज्ञान के लिए महर्षि मनु को चुना, क्योंकि अपने समय के वही एकमात्र अधिकारी एवम विशेषज्ञ विद्वान थे, जो धर्मों को यथार्थरूप में बतला सकते थे। धर्मों के मूलस्रोत अपौरुषेय अचिन्त्य अपरिमित ज्ञान वाले वेदों के ज्ञाता और उनमें निर्दिष्ट धर्मों के ज्ञाता केवल मनु ही हैं, ऐसा ऋषियों ने अनुभव किया। निश्चय ही मनु "अमितौजा" - अत्याधिक ज्ञानशक्ति से सम्पन्न व्यक्ति थे। इस बात से भी उनकी अगाध विद्वता का संकेत मिलता है कि उन्होंने धर्मप्रवचन का अधिकार केवल उन्हीं विद्वानों को दिया है। जिन्होंने पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करते हुए धर्म पूर्वक सांगोपांग वेद पढ़े हैं और जिन्होंने वेदार्थों का प्रत्यक्ष किया है, वे ही धार्मिक और परोपकारी विद्वान धर्मनिर्णय करने के अधिकारी हैं। उन्हीं के वचन और आचरण धर्म में प्रमाण माने जा सकते हैं। जो व्यक्ति धर्म निर्णय में केवल उपर्युक्त विद्वानों को ही प्रमाण मान रहा है, वह स्वयं विशिष्ट विद्वान अवश्य रहा होगा, फिर ऐसे अधिकारी विद्वान द्वारा प्रोक्त धर्मशास्त्र की प्रामाणिकता और महत्ता अवश्य रहा होगा,  फिर ऐसे अधिकारी विद्वान द्वारा प्रोक्त धर्मशास्त्र की प्रामाणिकता और महत्ता को कौन नहीं स्वीकार करेगा? यही कारण है कि समस्त भारतीय साहित्य में मनु के वचनों को आदर की दृष्टि से देखा गया है और प्रामाणिक माना है। यहां कुछ भारतीय एवं भारतीयेतर उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं, जिनसे मनुस्मृति की महत्ता, प्रमाणिकता, प्रभावशीलता, प्रभावशीलता एवं लोकप्रियता का निश्चय आसानी से किया जा सकता है।

साभार- "विशुद्ध मनुस्मृति" लेखक डॉ. सुरेंद्र कुमार, आर्ष साहित्य प्रचार

*संकलन-मनोज चतुर्वेदी शास्त्री*
ब्राह्मण संस्कृति सेवासंघ

Comments

Disclaimer

The views expressed herein are the author’s independent, research-based analytical opinion, strictly under Article 19(1)(a) of the Constitution of India and within the reasonable restrictions of Article 19(2), with complete respect for the sovereignty, public order, morality and law of the nation. This content is intended purely for public interest, education and intellectual discussion — not to target, insult, defame, provoke or incite hatred or violence against any religion, community, caste, gender, individual or institution. Any misinterpretation, misuse or reaction is solely the responsibility of the reader/recipient. The author/publisher shall not be legally or morally liable for any consequences arising therefrom. If any part of this message is found unintentionally hurtful, kindly inform with proper context — appropriate clarification/correction may be issued in goodwill.