श्री मनुस्मृति : अध्याय-२ (भाग-९)
ॐ अब
धर्म का सामान्य लक्षण कहते हैं- वेद्विशारद, धार्मिक, राग-द्वेष से रहित,
महात्माओं ने जिस धर्म का पालन किया और हृदय से स्वीकार किया उसको सुनो. पुरुष को
कामफल का अभिलाषी होना अच्छा नहीं है और न बिलकुल इच्छा का त्याग ही श्रेष्ठ है.
क्योंकि बिना इच्छा, वेदाध्ययन और वैदिक कर्मों का अनुष्ठान नहीं हो सकता (श्लोक:
१-२)
इस कर्म से वह ईष्टफल होगा- यही संकल्प है. इसलिए सब कामों का मूल संकल्प
है. यज्ञादि सब संकल्प से ही होते हैं. व्रत, नियम, धर्म सब संकल्प से किये जाते
हैं अर्थात बिना संकल्प कुछ नहीं हो सकता. संसार में कोई कर्म बिना इच्छा के होते
नहीं देखा गया. शास्त्रोक्त कर्मों का भलीभांति अनुष्ठान करने से स्वर्ग लोक की
प्राप्ति और इष्टकाम पुरे होते हैं.( श्लोक:३-५)
सम्पूर्ण वेद, धर्ममूल हैं- वेद वेत्ताओं की स्मृति और शील ब्रह्म्न्यता,
साधू पुरुषों का आचार, और आत्म-संतोष ये धर्म में प्रमाण माने जाते हैं. जिस वर्ण
का जो धर्म मनु ने कहा है, वह सब वेदोक्त है. वेद सम्पूर्ण ज्ञान का भंडार है.
विद्वान्, ज्ञानदृष्टि से, वेद प्रमाण द्वारा धर्मशास्त्र को जांचकर, अपने धर्म में
श्रद्धा करें. जो पुरुष, वेद और स्मृतियों में कहे धर्मों का पालन करता है, वह
संसार में कीर्ति पाकर, परलोक में अक्षय सुख पाता है. (श्लोक:६-७-८-९)
अति वेद जी और स्मृति धर्मशास्त्र को कहते हैं. ये दोनों सब विषयों में
निर्विवाद, तर्क-कुतर्क रहित हैं. क्योंकि, इन्हीं से धर्म का प्रकाश हुआ है. जो
द्विज, कुतर्कों से इनकी निंदा करते हैं, ये नास्तिक हैं, वेद निंदक हैं. वे शिष्टसमाज
से निकाल देने योग्य हैं. वेद, स्मृति, सदाचार और अपना संतोष, ये चार प्रकार के
धर्मलक्षण मुनियों ने कहें हैं. (श्लोक:१०-१२)
क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री






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