श्री मनुस्मृति : अध्याय-२ (भाग-१०)


जो पुरुष, अर्थ-प्रयोजन, काम-अभिलाप में नहीं फंसे हैं उनको धर्म ज्ञान होता है. धर्म जानने वालों के लिए, सबसे श्रेष्ठ प्रमाण श्रुति है. जहाँ श्रुति दो प्रकार की हो अर्थात एक ही विषय को दो तरह से कहें, वहां दोनों वचन धर्म में प्रमाण हैं, यह ऋषियों ने कहा है. श्रुतिभेद की मान्यता दिखलाते हैं- उदितकाल-सूर्योदय काल में, अनुदित-सूर्योदय से पूर्व में, समयाध्युषित-सूर्य, नक्षत्र-वर्जितकाल में, सर्वथा यज्ञ-होम होता है, यह वैदिक श्रुति है. यों ज्ञात होता है एक ही श्रुति कालभेद कहती है और उनमें अलग-अलग यज्ञकर्म किया जाता है. गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक जिस वर्ण के लिए वेदमन्त्रों से कर्म लिखे हैं उसी का इस शास्त्र को पढ़ने-सुनने का अधिकार है दूसरों का नहीं है. (श्लोक: १३-१६)
सरस्वती और द्प्द्वती इन देवनदियों के बीच जो देश है उस को “ब्रह्मवर्त” कहते है. जिस देश में परम्परा से, जो आचार चला आता है, वही वर्णों का और संकीर्ण जातियों का “सदाचार” कहा जाता है.( श्लोक:३-५)
कुरुक्षेत्र और मत्स्यदेश पांचाल और शूरसेनक. ये ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मवर्त के समीप हैं. कुरुक्षेत्र आदि देशों में उत्पन्न ब्राह्मणों से सब मनुष्य अपने-अपने उचित सदाचारों की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए हिमवान पर्वत और विद्न्ध्याच्ल के बीच में, सरस्वती के पूर्व और प्रयाग के पश्चिम में, जो देश हैं, उनको मध्यदेश कहते हैं. पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक, और हिमाचल से विंध्याचल के बीच में जो देश हैं, उनको “आर्यावर्त” कहते हैं.(श्लोक:१९-२२)
जिस देश में कृष्णासार मृग स्वभाव से विचरता है, वह यज्ञ करने योग्य देश है. इसके सिवा जो देश हैं, वे म्लेच्छ देश हैं- अर्थात यज्ञ लायक नहीं हैं. इन देशों में, द्विजातियों को यत्नपूर्वक निवास करना चाहिए, और शूद्र, अपनी जीविकावश, चाहे जिस देश में निवास कर सकता है.(श्लोक:२३-२४)
    क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री

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