श्री मनुस्मृति : अध्याय-१ (भाग-6)

एक हजार युग का ब्रह्म का पुण्यदिन और उतनी ही रात्रि है. उस रात्रि के अंत में ब्रह्म सोकर जागता है और अपने मन को सृष्टि में प्रेरित करता है. परमात्मा की इच्छा से प्रेरित मन, सृष्टि को करता है. मनस्तत्व से आकाश पैदा होता है. जिसका गुण शब्द है. आकाश के विकार से, गंध को धारण करने वाला, पवित्र वायु उत्पन्न हुआ है, उसका स्पर्श गुण है. वायु के विकार से, अंधकार को नाश करने वाला, प्रकाशमान अग्नि पैदा हुआ है, उसका गुण रूप है. अग्नि से जल, जिसका गुण रस है और जल से पृथ्वी, जिसका गुण गंध है. यही आदि से सृष्टि का क्रम है. पूर्व जो बारह हजार वर्ष का एक दैवयुग कहा है, ऐसे ७१ युगों का एक मन्वन्तरकाल होता है. मन्वन्तर असंख्य हैं, सृष्टि और संहार भी असंख्य है. परमात्मा यह सब बिना श्रम खेल के मुवाफिक किया करता है. कृतयुग में धर्म पूरा, चार पैर का और सत्यमय होता है. क्योंकि उस समय में अधर्म से मनुष्यों का कोई कार्य न बनता था. दुसरे युगों में धर्म कर्म से चोरी, झूठ, माया इनसे धर्म चौथाई-चौथाई घटता है. सत्ययुग में सब रोग रहित होते हैं. सारे मनोरथ पूरे होते हैं. ४०० वर्ष की आयु होती है. आगे त्रेता आदि में चतुर्थांश घटती जाती है. मनुष्यों को, वेदानुसार आयु, कर्मों के फल और देह का प्रभाव, सब युगानुसार फल देते हैं, युगों के अनुसार, कृतयुग में दुसरे धर्म, त्रेता में उससे दूसरा द्वापर में उससे जुदा कलि में कुछ दुसरे ही प्रकार का, यों बदला करता है और आपस में विलक्षण होता है. कृतयुग में तप मुख्य धर्म है, त्रेतायुग में ज्ञान, द्वापर में यक्ष और कलियुग में एक दान देना मुख्य धर्म है. परमात्मा ने संसार की रक्षा के लिए ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के काम अलग-अलग नियत किये. पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, ये छह कर्म ब्रह्मिनों के हैं. प्रजा की रक्षा करना, दान  देना, यज्ञ करना, पढ़ना और इन्द्रियों के विषयों में न फंसना, ये क्षत्रियों के कर्म हैं. पशुओं को पालना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना और खेती करना ये सब काम वैश्यों के हैं. परमात्मा ने शूद्रों का एक ही काम बतालाया है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की भक्ति से सेवा करना.
पुरुष नाभि के ऊपर अति पुनीत माना गया है. उससे भी उसका मुख अति पवित्र है. परमात्मा के मुख तुल्य होने से, चारों वर्णों में बड़ा होने से, और वेद पढ़ाने से, ब्राह्मण सारे जगत का प्रभु है. ब्रह्मा ने अपने मुख से देव और पितृकार्य सम्पादनार्थ और लोक की भलाई के लिए, ब्राह्मण को उत्पन्न किया है. जिसके मुख द्वारा देवगण हव्य और पितृगण कव्य (श्राद्ध आदि में) को ग्रहण करते हैं. उससे श्रेष्ठ कौन है? भूतों (स्थावर, जंघम) में प्राणी (कीटादि) श्रेष्ठ हैं. इनमें भी ब्राह्मण अधिक है. और ब्राह्मणों में विद्वान्, विद्वानों में कर्म जानने वाले, उनमें कर्म करने वाले और उनसे भी ब्रह्मज्ञानी श्रेष्ठ होता है. ब्राह्मण का शरीर ही धर्म की अविनाशी मूर्ति है. क्योंकि, वह धर्म द्वारा मोक्ष को प्राप्त होता है.
ब्राह्मण का उत्पन्न होना पृथ्वी में सबसे उत्तम है. क्योंकि सब जीवों के धर्मरुपी खजाने की रक्षार्थ वह समर्थ है. जो कुछ जगत के पदार्थ हैं, वे सब ब्राह्मणों के हैं. ब्रह्म मुख से उत्पत्ति होने से ब्राह्मण सब ग्रहण करने के योग्य है.
   (श्लोक ७८-१००) 
क्रमश:
संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री

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