श्री मनुस्मृति : अध्याय-१ (भाग-२)
ॐ ब्रह्म ने उस परमात्मा (प्रकृति) से मनु और मन से
अहंकार, उससे महतत्व, सत्व, रज, तम तीनों गुण और शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयों के
ग्राहक पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और अहंकार इन छ के सूक्ष्म अवयवों को अपनी-अपनी
मात्राओं में अर्थात शब्द, स्पर्शादिकों में मिलाकर सब स्थावर जंगमरूप विश्व की
रचना की. शरीर के सूक्ष्म छ अवयव अर्थात अहंकार और पंच महाभूत सब कार्यों के आश्रय
होने से उस ब्रह्म की मूर्ति को शरीर कहते हैं. पंच महाभूत और मन अपने कार्यों और
सूक्ष्म अवयवों के द्वारा सब भूतों की उत्पत्ति के लिए अविनाशी ब्रह्म में
प्रविष्ट होते हैं. उन सात प्रकृतियों अर्थात महतत्त्व, अहंकार और पंच महाभूत की
सूक्ष्म मात्राओं से पंचतन्मात्रा से अविनाशी परमात्मा नाशवान जगत को उत्पन्न किया
करता है. इन पंचमहाभूतों में पहले-पहले का गुण दूसरा-दूसरा पाता है. जैसा, आकाश का
गुण शब्द आगे के वायु में व्याप्त हुआ. वायु का गुण स्पर्श अग्नि में, अग्नि का
रूप जल में इत्यादि. इनमें जिसमें जितने गुण हैं वह उतने गुणोंवाला है. जैसे आकाश
में एक गुण शब्द है. वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं इसलिए आकाश एक गुणवाला और
वायु दो गुणवाला कहलाया. यों आगे भी जानना चाहिए. परमात्मा ने वेदानुसार ही सबके
नाम और कर्म अलग-अलग बाँट दिए हैं, जैसा गोजाति का नाम गो, अश्व का अश्व और कर्म
जैसा ब्राह्मणों का वेदाध्ययन आदि, क्षत्रियों का प्रजारक्षा आदि जैसा पूर्वकल्प
में था, वैसा ही रचा गया है. फिर परमात्मा ने, यज्ञादि में जिनको भाग दिया जाता
है, ऐसे प्राणवाले इन्द्रादि देवता, वनस्पति आदि के स्वामी देवता, साध्य नामक
सूक्ष्म देवगण और यज्ञों को रचा. अग्नि, वायु और सूर्य इन तीनों से क्रम से
यज्ञकर्म सम्पादन के लिए, ऋक, यजु, साम इस त्रयी विद्या को उत्पन्न किया. काल और
काल का विभाग वर्ष, मास, पक्ष, तिथि, प्रहर, घटिका, पल, विपल आदि नक्षत्र, ग्रह,
नदी, समुद्र, पर्वत और ऊंची, नीची भूमि की सृष्टि हुई. (श्लोक १४-२४)
क्रमश:संकलन : मनोज चतुर्वेदी शास्त्री






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