इस्लाम और पाकिस्तान पर डॉ. अम्बेडकर के विचार
२८ दिसंबर, १९४०
को उनका “Thought on Pakistan” पुस्तक प्रकाशित हुआ. उस समय तक पाकिस्तान का मुद्दा गरमाया
तो था, लेकिन राष्ट्रीय बहस का विषय नहीं बना था. पुस्तक प्रकाशित
होने के समय दूसरा विश्वयुध्द प्रारंभ हो चुका था. इस पृष्ठभूमि पर इस पुस्तक में
बाबासाहब ने इस्लाम और पकिस्तान के बारे में किसी की परवाह न करते हुए,
निर्भीकता के साथ खरी-खरी सुनायी हैं. उन्होंने विभाजन का समर्थन किया हैं. इस्लाम
से ‘छुटकारा’
पाने के लिए विभाजन कितना आवश्यक हैं,
इस बात को बार-बार दृढ़ता के साथ रखा हैं. मुसलमानों के साथ
हिन्दुओं का सह-अस्तित्व संभव ही नहीं हैं,
इस बात को दमदारी के साथ प्रतिपादित किया है. और इसीलिए
विभाजन के समय जनसंख्या के अदला-बदली की शर्त को वे अनिवार्य मानते हैं.
पाकिस्तान पर पुस्तक
प्रकाशित होने के लगभग १५ वर्ष बाद लिखे एक लेख में बाबासाहब ने मुस्लिमों को ‘अभिशाप’ इस शब्द से
संबोधित किया हैं. महाराष्ट्र
शासन द्वारा प्रकाशित उनके ‘Dr. Babasaheb Ambedkar – Writing
and Speeches’ इस ग्रन्थ साहित्य के पहले खंड के १४६ वें पृष्ठ पर इस
सन्दर्भ में बड़ा स्पष्ट उल्लेख हैं. बाबासाहब लिखते हैं – ”When partition took place, I felt that God
was willing to lift his curse and let India be one, great and prosperous” (जब विभाजन हुआ, तब
मुझे ऐसा लगा, मानो ईश्वर ने इस देश को दिया हुआ ‘अभिशाप’ वापस
ले लिया हैं और अब अपने देश को एक रखने का,
महान और समृध्दशाली बनने का रास्ता
साफ़ हो गया हैं.)
ये आगे भी दिखाई देता हैं – उनकी
मृत्यु से मात्र छह माह पहले, अर्थात
२३ जून, १९५६ को दिल्ली में अखिल भारतीय बौध्दजन समिति के प्रकट सभा
में बाबासाहब ने अपने यही विचार स्पष्टता से रखे हैं –
“I was glad that India was separated
from Pakistan. I was the philosopher so to say, of Pakistan. I advocated
Pakistan because I felt that it was only by partition that Hindus would not
only be independent, but free.”
अपने पाकिस्तान पर लिखे गए पुस्तक में ऊपर कही गयी सभी
बातों का विस्तृत विवरण आता हैं. चुंकि बाबासाहब वकील थे,
इसलिए उन्होंने ‘पाकिस्तान’
इस विषय के दोनों पक्षों का प्रतिपादन किया हैं.
‘मुस्लिम केस फॉर पाकिस्तान’ इस
शीर्षक के अंतर्गत तीन अध्याय हैं. उनमे ‘मुस्लिम
लीग की मांगे’, ‘राष्ट्र को घर चाहिए’
और ‘दुर्दशा
से पलायन’ जैसे विषयों पर विस्तार से विवेचन किया हैं.
पुस्तक के अगले तीन अध्याय ‘हिन्दू
केस अगेंस्ट पाकिस्तान’ इस शीर्षक के अंतर्गत हैं. ‘खंडित
एकता’, सुरक्षा की दुर्बलता’
और पाकिस्तान तथा धार्मिक एकता’
इन विषयों द्वारा पाकिस्तान के निर्माण के विरोध में हिन्दू
समाज के तर्कों को रखा गया हैं.
आगे ‘पाकिस्तान
नहीं बना तो’ इस शीर्षक के अंतर्गत तीन अध्याय हैं. इसमें पाकिस्तान का
विकल्प, हिन्दू और मुस्लिमों के दृष्टिकोण से दिया हैं.
अंतिम तीन अध्याय ‘पाकिस्तान
के निर्माण की बेचैनी’ इस शीर्षक के अंतर्गत हैं. इनमे
सामाजिक मुद्दे, जातिगत संघर्ष, राष्ट्रीय
अवसाद आदि विषयों की चर्चा हैं. और सबसे अंत में पूरे पुस्तक का सार,
संक्षेप में दिया हैं.
यह पुस्तक अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण हैं. यह पुस्तक किसी
हिन्दुत्ववादी चिन्तक ने लिखी हुई नहीं हैं. वरन बाबासाहब जैसे अत्यंत कुशाग्र
बुध्दी के व्यक्ति ने, हिन्दू –
मुस्लिम मसले के सभी पहलुओं पर सारगर्भित विचार कर यह
पुस्तक लिखी हैं. इसलिए यह एकपक्षीय होने का प्रश्न ही नहीं उठता. बाबासाहब ने
अनेकों बार हिन्दू धर्म पर प्रखर टिप्पणी की हैं. इसलिए ऐसे हिन्दू समाज के पक्षधर
न रहने वाले व्यक्ति ने, संविधान के निर्माता ने यह ग्रन्थ
लिखा हैं, यह महत्वपूर्ण हैं.
इस पुस्तक में बाबासाहब लिखते हैं –
“ भारत में हिन्दू –
मुस्लिम एकता कभी अस्तित्व में ही नहीं थी. मुसलमान शासक के
रूप में भारत में आये थे, इसलिए
वे इसी मानसिकता में रहते हैं. १८५७ का विद्रोह भी हिन्दू –
मुस्लिम एकता का प्रतीक नहीं था,
वरन मुसलमानों ने अपनी ‘छिनी
गयी’ शासक
की भूमिका को फिर से वापस लेने के लिए अंग्रेजों से छेड़ा विद्रोह था.”
बाबासाहब मुस्लिम धर्म के बारे में
भी विस्तार से लिखते हैं, “मुसलमानों
में समता नहीं हैं. इस धर्म में महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता.
मुसलमानों के अलावा वें सभी को काफिर मानते हैं. और ‘मुसलमानों
के देश में / समाज में काफिरों के साथ दोयम दर्जे का हीन व्यवहार होना चाहिए’
यह उनके धर्म में ही लिखा हैं.” इस
सन्दर्भ में बाबासाहब ने अनेक उदाहरण दिए हैं. तैमुरलंग की मिसाल देकर वे बताते
हैं की उसने कैसे पाशविक अत्याचार हिन्दुओं पर किये थे.
तो फिर ऐसे मुसलमानों के साथ हिन्दुओं की एकता संभव हैं
क्या..? अगर हैं, तो
कैसे..? इस बारे में पुस्तक के अंत में बाबासाहब लिखते हैं,
“हिन्दू–मुस्लिम एकता यह ‘तुष्टिकरण’ (appeasement) या ‘समझौता’ (settlement) इन दो ही रास्तों से संभव हैं. (If Hindu – Moslem unity is possible, should it be
reached by appeasement or settlement..? – Chapter IV, Page 264).
इसमें उल्लेख किया गया तुष्टिकरण (appeasement)
यह शब्द बाबा साहब ने मुसलमानों के सन्दर्भ में अनेकों बार
प्रयोग किया हैं. ‘कांग्रेस
पार्टी मुसलमानों का तुष्टिकरण करती हैं,
जो देश के लिए घातक हैं’,
यह कहते हुए बाबासाहब लिखते हैं –
Congress has failed to realize is the fact that there is a difference between
appeasement and settlement and that the difference is an essential one (Chapter
IV, Page 264).
इसी अध्याय में बाबासाहब ‘तुष्टिकरण’
इस शब्द की व्याख्या करते हैं. वे लिखते हैं,
“तुष्टीकरण याने आक्रान्ता का दिल जितने के लिए उसने किये
हुए खून, बलात्कार, चोरी, डकैती
आदि को अनदेखा करना” (Appeasement means
to offer to buy off the aggressor bu convincing at or collaborating with him in
the rape, murder and arson on innocent Hindus, who happen for the moment to be
the victims of his displeasure).
अर्थात ‘कितना
भी तुष्टिकरण किया जाय, आक्रांता का कितना भी अनुनय किया जाय,
उनकी मांगों का कोई अंत नहीं होता…’
बाबासाहब ने बड़े ही आग्रह के साथ लोकसंख्या के अदला-बदली को
प्रतिपादित किया हैं. ‘पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान में सभी
मुसलमान और हिंदुस्तान में सभी हिन्दू’
यह उनकी पक्की सोच हैं. और पूरी
आस्था के साथ उन्होंने अपनी इस राय को बार-बार दोहराया है.
बाबासाहब की यह राय आगे भी कायम रही हैं. भारत स्वतंत्रता
के दहलीज पर है, और ऐसे समय, २०
जुलाई, १९४७ में प्रकाशित अपने वक्तव्य में बाबा साहब कहते हैं –
“बंगाल और पंजाब का विभाजन यह केवल उन प्रान्तों के
निवासियों का प्रश्न नहीं हैं. यह राष्ट्रीय प्रश्न हैं. इन प्रान्तों की सीमा रेखा
तय करना यह सुरक्षा और व्यवस्थापन इन मुद्दों के आधार पर ही संभव है. जनसंख्या के
अदला-बदली को यदि कांग्रेस और लीग मानती,
तो यह समस्या खड़ी ही नहीं होती. (खंड
१७, पृष्ठ ३५५)
बाबासाहब ने १९३६ में धर्मांतरण की घोषणा की. घोषणा के पहले
और बाद में उन्होंने विभिन्न धर्मों का बारीकी से अध्ययन किया. इस दौरान हैदराबाद रियासत के नवाब ने उन्हें मुस्लिम
धर्म में आने के लिए कुछ करोड़ रुपये पेश किये. (संदर्भ – धनंजय
कीर द्वारा लिखित बाबासाहेब आंबेडकर चरित्र) किन्तु बाबासाहब ने यह पेशकश ठुकरा
दी.
बाद में बाबासाहब का झुकाव बौध्द धर्म के पक्ष में होने पर
उन्होंने ‘बौध्द और इस्लाम’ संबंधों
पर विस्तार से लिखा हैं. इस्लामी आक्रान्ताओं ने कितनी बर्बरता से बौध्द भिक्खुओं को
मौत के घाट उतारा, बौध्द विहारों को उध्वस्त किया, इस बारे में
बाबासाहब लिखते हैं, “इस्लाम में ‘बुत शिकन’ यह सम्मान से
बोला जाने वाला शब्द हैं. इसका अर्थ हैं, ‘मूर्ती फोड़ने वाला’. इसमें जो ‘बुत’ हैं, वह ‘बुध्द’ शब्द का अपभ्रंश (परिवर्तित रूप) हैं.” ‘बौध्द धर्म को समाप्त करने में मुस्लिम आक्रान्ताओं की
भूमिका प्रमुख हैं’, ऐसा बाबासाहब ने अनेक स्थानों पर लिखा हैं.
संकलन-
मनोज चतुर्वेदी
स्रोत- avatibhavti.com पर १३ अगस्त २०१७ को प्रकाशित
लेख “डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर और इस्लाम” लेखक प्रशांत पोल के सम्पादित अंश हैं.





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