कश्मीर में इस्लाम की कहानी, इतिहास की जुबानी

प्रतीकात्मक 

माना जाता है कश्यप कश्मीर के पहले राजा थे. कश्यप सागर (केस्पियन सागर) और कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि के नाम पर ही पड़ा था. राजतरंगनि ११८४ ईसा पूर्व के राजा गोनन्द से लेकर राजा विजय सिम्हा (११२९ ईसवी) तक के कश्मीर के प्राचीन राजवंशों और राजाओं का प्रमाणिक दस्तावेज हैं.
ईसा पूर्व ३रि शताब्दी में महान सम्राट अशोक ने कश्मीर में बौध धर्म का प्रसार किया. बाद में यहाँ कनिष्क का अधिकार रहा. कनिष्क के समय श्रीनगर के कुंडल वन विहार में प्रसिद्ध बौध विद्वान् वसुमित्र की अध्यक्षता में सर्वस्तिवाद परम्परा की चौथी बौध महासंगिती का आयोजन किया था. छठी शताब्दी के आरंभ में कश्मीर पर हूणों का अधिकार होआ गया. सन ५३० में कश्मीर घाटी एक स्वतंत्र राज्य रहा. इसके बाद इस पर उज्जैन साम्राज्य के राजाओं का अधिकार रहा. एक समय था जब उज्जैन अखंड भारत की राजधानी हुआ करता था. विक्रमादित्य राजवंश के पतन के बाद कश्मीर पर स्थानीय शासक राज करने लगे. वहां हिन्दू और बौध संस्कृतियों का मिश्रित रूप विकसित हुआ. कश्मीर में छठी शताब्दी में अपनी तरह का शैव दर्शन विकसित हुआ. शैव राजाओं में सबसे पहला और प्रमुख नाम मिहिरकुल का है जो हूण वंश का था.
हूण वंश के बाद गोनंद द्वितीय और कार्कोटा नागवंश (सन ६९७ से सन ७३८) का शासन हुआ जिसके राजा ललितादित्य मुक्तपीड को कश्मीर के सबसे महान राजाओं में शामिल किया जाता है. इसके पश्चात अगला नाम ८५५ इसवी में सत्ता में आये उत्पल वंश के अवन्तिवर्मन का लिया जाता है जिनका शासनकाल कश्मीर के सुख और समृद्धि का काल था.
तत्कालीन राजा सहदेव के समय मंगोल आक्रमणकारी दुलचा ने आक्रमण किया. दुलचा के जाने के बाद सहदेव लौटा तो उसने किश्तवार के गद्दी क़बीले के साथ श्रीनगर पर कब्ज़े की कोशिश की लेकिन रामचन्द्र ने खुद को राजा घोषित कर दिया. उसने लार के अपने किले से उतर अंदरकोट पर कब्ज़ा कर लिया और सहदेव की सेना को हराकर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. भय से पहाड़ों में जा छिपी जनता जब वापस लौटी तो राजा के लिए उसके मन में कोई सम्मान शेष न था. चारों ओर त्राहि-त्राहि सी मची थी. हालत यह कि पहाड़ी क़बीलों ने इसी बीच हमला कर दिया और बचा-खुचा लूटने के साथ कई लोगों को दास बनाकर ले गए और इन सबके परिणामस्वरूप अकाल की स्थिति पैदा हो गई. जनता की रक्षा के लिए वहां कोई नहीं था. उन्होंने खुद अपनी सेनायें बनाकर इन क़बीलों का सामना किया.
इस अवसर का लाभ उठाकर तिब्बत से आया एक बौध रिन्चन ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया. पहले तो उसने जनता का साथ दिया और फिर शाहमीर तथा अपनी लद्दाखी सेना की सहायता से सैनिकों को वस्त्र व्यापारी के रूप में धीरे-धीरे महल के अन्दर भेजकर उचित समय पर महल पर हमला कर रामचंद्र की हत्या कर दी. मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए रामचंद्र की बेटी कोटा ने पिता की हत्या को महत्त्व देने की जगह कश्मीर की महारानी के पद को महत्त्व दिया और 6 अक्टूबर 1320 को रिंचन जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तो कोटा उसकी महारानी के रूप में उसके बगल में बैठी. रिंचन ने रामचंद्र के पुत्र रावणचन्द्र को रैना की उपाधि देकर लार परगना और लद्दाख की जागीर दे दी और इस तरह उसे अपना मित्र बना लिया. माना जाता है कि रिन्चन हिन्दू धर्म अपनाना चाहता था लेकिन उसके तिब्बती बौद्ध होने के कारण ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे शैव-धर्म में दीक्षित करने से इंकार कर दिया. ऐसे में निराश रिंचन को शाहमीर एक सूफ़ी संत बुलबुल शाह के पास ले गया. रिंचन उनसे बहुत प्रभावित हुआ और उसने इस्लाम अपना लिया. हालांकि, रफ़ीकी सहित अनेक विद्वानों का मानना है कि उसके इस्लाम अपनाने के पीछे उस समय मध्य-एशिया में इस्लाम का बढ़ता राजनीतिक प्रभाव जिम्मेदार था. वजह जो भी हो लेकिन इस प्रकार रिंचन सुलतान “सदर-अल-दीन” के नाम से कश्मीर का पहला सुल्तान बना. रिंचन के बाद कश्मीर में सबसे पहले इस्लाम अपनाने वाला व्यक्ति था उसका साला रावणचन्द्र.  जोनाराजा ने उसके शासन काल को स्वर्ण युगकहा है, हालांकि प्रोफ़ेसर के.एल.भान उस युग को जबरिया धर्म परिवर्तन का युग बताते हैं. बहुत संभव है कि सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं हो. तथ्य बताते हैं कि सबसे पहले उसके उन बौद्ध अनुयायियों ने इस्लाम अपनाया जो लद्दाख से ही उसके साथ आये थे. रिंचन सिर्फ़ तीन वर्ष तक राज्य कर पाया. विद्रोहियों से युद्ध में घायल होकर जब उसकी मृत्यु हुई तो उसका पुत्र हैदर अभी शिशु ही था. शाहमीर और अन्य दरबारियों की सलाह से रानी ने डोल्चा के आक्रमण के बाद से ही स्वात घाटी में रह रहे राजा सहदेव के छोटे भाई उदयनदेव को राजा नियुक्त कराया तथा उससे विवाह कर रानी पद बरक़रार रखा. उदयनदेव एक कमज़ोर राजा था और राज्य का नियंत्रण कोटा देवी के हाथों में आ गया. इसी समय इतिहास ने खुद को दुहराया. एक तुर्क आक्रमणकारी अचल ने घाटी पर आक्रमण किया तो राजा लद्दाख भाग गया. कमान पूरी तरह से रानी और शाहमीर के हाथों में आ गई. उन्होंने चतुराई से चाल चली और अचल को समर्पण का सन्देश भेज दिया. इससे जब वह निश्चिन्त हो गया और उसने सेना का एक हिस्सा वापस भेज दिया तो रानी, उसके भाई रावणचन्द्र, भट्ट भीक्ष्ण और शाहमीर ने सेना एकत्र कर उसपर हमला किया और बुरी तरह परास्त कर गिरफ़्तार कर लिया. बीच चौराहे पर शाहमीर ने अचल का सर धड़ से अलग कर दिया. अब वे जनता के नज़र में नायक थे. लौटने पर उदयन देव को अपनी भाई की नियति तो नहीं मिली लेकिन वह नाममात्र का राजा रह गया. सत्ता का पूरा नियंत्रण रानी कोटा के हाथों में आ गया. 1338  में राजा की मृत्यु के बाद दोनों के बीच सत्ता के लेकर खींचतान शुरू हुई.
रानी कोटा ने ख़ुद को साम्राज्ञी घोषित कर दिया और भट्ट भीक्ष्ण को अपना मंत्री घोषित कर राजधानी अंदरकोट में ले गईं. शाहमीर की महत्त्वाकांक्षाएं अब जाग चुकी थीं. उसने गंभीर रूप से बीमार होने का बहाना किया और जब रानी ने भट्ट भीक्ष्ण, अवत्र और अन्य मंत्रियों को उसे  देखने भेजा तो उनकी हत्या कर दी. इसके बाद  शाहमीर ने मानसबल झील के पास राजमहल को घेर लिया और रानी ने आत्मसमर्पण कर दिया. शाहमीर ने विवाह का प्रस्ताव दिया और रानी ने स्वीकार कर लिया. रानी की मृत्यु 1339 में हुई और उसके बेटों का इतिहास में फिर कोई ज़िक्र नहीं आता. इस तरह कश्मीर में शाहमीर वंश की स्थापना हुई. इस समय तक दरबार में हिन्दू दरबारियों का बाहुल्य था. धर्म परिवर्तन की कोई बड़ी घटना भी इतिहास में नहीं मिलती. ज़्यादातर सुल्तानों की पत्नियां हिन्दू राजाओं या दरबारियों की बेटियां थीं और दोनों धर्मों के रहन सहन में कोई ख़ास अंतर न था.

 
कश्मीर में इस्लामीकरण की शुरुआत 1379 में कुतुबुद्दीन के शासनकाल में फ़ारसी संत और विद्वान सैयद अली हमदानी का अपने शिष्यों के साथ कश्मीर आगमन से मानी जाती है. सुल्तान ने उनका स्वागत किया श्रीनगर में झेलम के दक्षिणी किनारे पर उन्हें अपना खानकाह बनाने के लिए ज़मीन दी गई और इस तरह खानकाह-ए-मौला के नाम से कश्मीर में पहली खानकाह (सूफ़ी मठ) का निर्माण हुआ. हमदानी ने अपने शागिर्दों को पूरे कश्मीर में धर्म प्रचार के लिए भेजा. साथ ही उसने सुल्तान को शरिया की शिक्षा दी. सुल्तान पर उसके प्रभाव को इससे ही समझा जा सकता है कि उसने  दोनों बहनों में से एक को तलाक़ देकर बड़ी बहन सूरा से फिर से निक़ाह किया. उसके ही प्रभाव में उसने मुस्लिम देशों में पहने जाने वाली वेशभूषा अपनाई और अपने मुकुट के नीचे उसकी दी हुई एक टोपी, क़ुल्लाह-ए-मुबारक़पहनने लगा. यह परम्परा तब तक चली जब तक फतहशाह की आख़िरी इच्छा के अनुसार इस टोपी को उनके साथ दफ़ना नहीं दिया गया. सैयद हमदानी के समय तक बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन के प्रमाण नहीं मिलते. उनका तरीक़ा आध्यात्मिक बहसों और चमत्कारों वाला था. कहते हैं कि उसके हस्तक्षेप से दरबार में हिन्दू दरबारियों के बीच असंतोष फैला तो सुल्तान ने उसकी सारी बातें मानने से इंकार कर दिया और उसे वापस जाना पड़ा. हालांकि इस तथ्य को लेकर इतिहासकारों में आम  सहमति नहीं है. इसी दौर में प्रसिद्ध शैव योगिनी लल द्यद का प्रभाव भी बढ़ा. वह हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों, मूर्ति पूजा, आडम्बर और जातिप्रथा का विरोध करती थीं. उनकी लिखी कविताओं को वाख (वाक्य) कहा जाता है और कश्मीरी भाषा में लिखे गए ये वाख अब तक कश्मीर में बेहद लोकप्रिय हैं. तमाम ब्राह्मणवादी कुरीतिओं पर यह हमला वहां के हमदानी के साथ आये सूफ़ी आन्दोलन और इस्लामीकरण के लिए पूर्वपीठिका बना. ऐसे में जब ललद्यद मूर्तिपूजा के खंडन, एकेश्वरवाद और योग के तीन सरल आधारों पर धर्म की स्थापना करती हैं तो यह सूफ़ी संतों के लिए बहुत सुविधाजनक हो जाता है. पहली दो चीज़ें तो थी हीं इस्लाम में, योग के समकक्ष था सूफ़ी समाज में प्रचलित ज़िक्रजो श्वास नियन्त्रण का अभ्यास है. इस तरह ललयद की शिक्षाएं परोक्ष रूप से इस्लाम के लिए अनुकूल माहौल बनाने में सहायक हुईं. आम भाषा में मूर्तिपूजा  और ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता का उनका विरोध इस्लाम के प्रसार में सहायक सिद्ध हुआ. लेकिन सुल्तान सिकंदर का समय आते-आते परिस्थितियां बदल गईं. 1393 में सैयद अली हमदानी के साहबज़ादे मीर सैयद मुहम्मद हमदानी (1372-1450) की सरपरस्ती में सूफी संतों और उलेमाओं की दूसरी खेप कश्मीर आई. अपने पिता के विपरीत मीर हमदानी इस्लाम की स्थापना के लिए हर तरह की ज़ोर ज़बरदस्ती का हामी था या  यों  कहें  कि  तब  तक  इसके  लिए  अनुकूल  माहौल बन  चुका था. कश्मीर में उसी समय सक्रिय सैयद हिसारी जैसे सहिष्णु सूफ़ियों के विपरीत उसने इस्लामीकरण के लिए मिशनरी ज़ज्बे से काम किये और सिकन्दर पर अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल करते हुए 12 सालों के कश्मीर प्रवास में सत्ता और धर्म के चरित्र को इस कदर बदल कर रख दिया उसे इतिहास में सिकन्दर बुतशिक़न के नाम से जाना गया.
हमदानी के प्रभाव में सबसे पहले जो लोग आये उनमें सुल्तान का ताक़तवर मंत्री सुहाभट्ट था. हमदानी ने उसका धर्म परिवर्तन कर मलिक सैफुद्दीन का नाम दिया और उसकी बेटी से विवाह किया. सुहा भट्ट ने कालान्तर में अपनी क्रूरता से सबको पीछे छोड़ दिया और सिकन्दर के नेतृत्व में कश्मीर में मंदिरों के ध्वंस और धर्मपरिवर्तन का संचालक बना. इस दौर को कश्मीर में ताक़त के ज़ोर से इस्लामीकरण का दौर कहा जा सकता है जिसके बारे में जोनाराजा ने कहा है कि जनता का सौभाग्य उनका साथ छोड़ गया, सुल्तान राजधर्म भूल गया और दिन रात मूर्तियां तोड़ने में आनंद लेने लगा. फ़रिश्ता ने लिखा है कि सुहा भट्ट के प्रभाव में सुल्तान ने शराब, संगीत, नृत्य और जुए पर पाबंदी लगा दी, हिन्दुओं पर जज़िया लगा दिया गया और माथे पर कश्का (तिलक) लगाना प्रतिबंधित कर दिया गया, सोने और चांदी की सभी मूर्तियों को पिघला कर सिक्कों में तब्दील कर दिया गया और सभी हिन्दुओं को मुसलमान बन जाने के आदेश दिए गए. कश्मीर में अफ़रातफ़री मच गई, मार्तंड, अवन्तीश्वर, चक्रधर, त्रिपुरेश्वर, सुरेश्वर और पारसपुर के प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया. हिन्दुओं के सामने इस्लाम अपनाने, देश छोड़ देने या आत्महत्या करने के ही विकल्प बचे थे. बड़ी संख्या में लोगों ने धर्म परिवर्तन स्वीकार कर लिया. केवल कुछ ब्राह्मणों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. उनमें से अधिकांश ने देश छोड़ दिया और बाक़ी ने आत्महत्या कर ली. कुछ विद्वानों ने तो माना है कि उस दौर में बस 11 कश्मीरी पंडित परिवार बचे थे. जोनाराजा की मानें तो कोई मंदिर साबुत नहीं बचा था.
लेकिन उसी दौर में सैयद हिसारी जैसे सहिष्णु सूफ़ी भी थे जिनके दबाव में आखिरकार सुलतान को इस्लामीकरण की सीमा तय करनी पड़ी और जज़िया कम करने के साथ कुछ और क़दम उठाने पड़े. इन क़दमों से मीर हमदानी इतना आहत हुआ कि 12 साल के प्रवास के बाद अपने पिता की ही तरह अपने कई महत्त्वपूर्ण शिष्यों को इस्लाम का प्रचार जारी रखने के लिए छोड़कर वह भी कश्मीर से चला गया. वर्तमान मीरवायज़ हमदानी के उन शिष्यों में से एक सिद्दीकुल्लाह त्राली के खानदान से हैं जो उस समय त्राल में बसे लेकिन बाद में श्रीनगर आ गए थे.
बाद के दौर में ऋषि आन्दोलन ने ज़ोर पकड़ा और कश्मीर में अंततः जो इस्लाम स्थापित हुआ वह बाहर से आये सूफिओं का भी नहीं बल्कि स्थानीय ऋषियों का इस्लाम था जिसके नायक शेख नुरूद्द्दीन उर्फ़ नन्द ऋषि थे. मान्यता है कि शेख नूरुद्दिन उर्फ़ नन्द ऋषि को ललद्यद ने अपना दूध पिलाया था. सादा जीवन, त्याग, समानता और साम्प्रदायिक सद्भाव वाला यह इस्लाम उन्नीस सौ साठ के दशक में अहले हदीस और जमात जैसे कट्टरपंथी आन्दोलनों के पहले तक वहां बना रहा. 1413 में सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसका बेटा अली शाह जब गद्दी पर बैठा तो सत्ता पूरी तरह सुहा भट्ट के हाथ में थी और उसने अपना साम्प्रदायिक अभियान और क्रूरता से चलाया. जोनराजा बताते हैं कि सिकन्दर का नियंत्रण समाप्त होने बाद उसकी क्रूरताएं और बढ़ गईं. अपने पूर्व समुदाय को उसने तलवार की नोक पर मुस्लिम बनाया. मौलानाओं ने सुलतान से मनमुताबिक नीतियां बनवाईं. लेकिन यह आज़ादी केवल चार साल चल पाई. 1417 में जब सुहा भट्ट की मौत तपेदिक से हुई तो क्रूरताओं से कराहते कश्मीर की एक स्वर्णयुग प्रतीक्षा कर रहा था. अली  शाह  के  छोटे भाई शाही खान उसे सत्ता से अपदस्थ कर ज़ैनुल आब्दीन के नाम से गद्दी पर बैठा और उसने अपने पिता तथा भाई की साम्प्रदायिक नीतियों को पूरी तरह से बदल दिया. उसका आधी सदी का शासनकाल कश्मीर के इतिहास का सबसे गौरवशाली काल माना जाता है.
संस्कृत के अलावा इस दौर में हिन्दुओं ने फ़ारसी का भी अध्ययन किया. मुंशी मुहम्मद-उद-दीन की किताब तारीख़-ए-अक्वान-ए-कश्मीर के हवाले से सूफ़ी बताते हैं कि जिन हिन्दुओं ने सबसे पहले फ़ारसी और इस्लामी साहित्य की तालीम हासिल की वे सप्रू थे. सर मोहम्मद इक़बाल इसी वंश के थे जिनके परिवार ने औरंगज़ेब के समय इस्लाम स्वीकार कर लिया था. इस वंश के दूसरे प्रतिष्ठित नाम सर तेज़ बहादुर सप्रू थे. लेकिन उसकी मृत्यु के बाद शाह मीर वंश का पतन शुरू हो गया और 1540 में हुमायूं के एक सिपहसलार मिर्ज़ा हैदर दुगलत ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. उसका शासनकाल 1561 में समाप्त हुआ जब स्थानीय लोगों के एक विद्रोह में उसकी हत्या कर दी गई. उसके बाद चले सत्ता संघर्ष में चक विजयी हुए और अगले 27 सालों तक कश्मीर में लूट, षड्यंत्र और अत्याचार का बोलबाला इस क़दर हुआ कि कश्मीर के कुलीनों के एक धड़े ने बादशाह अकबर से हस्तक्षेप की अपील की. अकबर की सेना ने 1589 में कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया और इस तरह कश्मीर मुग़ल शासन के अधीन आ गया.
मुगल वंश के पतन के बाद १७५२-५३ में अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया. अफगानी मुसलमानों ने कश्मीर की जनता पर भयंकर अत्याचार किये. ६७ साल तक पठानों ने कश्मीर घाटी पर शासन किया.
इन अत्याचारों से तंग आकर एक कश्मीरी पंडित बीरबल धर ने एक सिक्ख राजा रणजीत सिंह से मदद मांगी. उन्होंने अपने उत्तराधिकारी खड़क सिंह के नेतृत्त्व में हरि सिंह नलवा सहित अपने सबसे काबिल सरदारों के साथ तीस हजार की फ़ौज रवाना की और १५ जून १८१९ को कश्मीर में सिक्ख शासन की स्थापना हुई. महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू को पंजाब में मिला लिया था, बाद में उन्होंने गुलाब सिंह को जम्मू सौंप दिया. १८५६ से १८८५ तक महाराजा रनबीर सिंह और उनके बाद १९२५ से १९४७ तक महाराजा हरि सिंह का यहाँ राज रहा. १९४७ में जम्मू और कश्मीर पर डोगरा शासकों का शासन रहा. इसके बाद महाराजा हरि सिंह ने २६ अक्टूबर १९४७ को भारतीय संघ में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए (हालाँकि अभी तक इसको लेकर इतिहासकारों के अपने-अपने मत हैं)

स्रोत – यह लेख वेबदुनिया डॉट कॉम पर प्रकाशित लेख “जम्मू-कश्मीर का इतिहास जानिए” (लेखक: अनिरुद्ध शतायु) एवं एबीपी न्यूज़ में प्रकाशित “एक अनसुनी कहानी: कश्मीर में इस्लाम के उदय की कहानी” (लेखक अशोक कुमार पाण्डेय) के सम्पादित अंशों पर आधारित है.   

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