मुस्लिम लीग अंग्रेजों की वफ़ादार पिट्ठू थी

लार्ड कर्जन के बंगाल विभाजन के पश्चात भी भारत में राष्ट्रीयता की भावनाएं मजबूत हुईं. इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने कुछ लोगों के माध्यम से इस भावना को तोड़ने का प्रयास किया, और अंग्रेजों के इस कुप्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई मुस्लिम लीग ने.  
ढाका के नवाब और तत्कालीन भारत सरकार से १४ लाख रूपये का कम ब्याज दर पर कर्ज पाने वाले सलिमुल्ला खान जो आंख के आपरेशन की वजह से शिमला के प्रतिनिधिमंडल में नहीं जा सके थे, ने नवम्बर १९०६ ईसवी को एक “आल इंडिया मुस्लिम कोंफेदेरेसी” के गठन की योजना बनाई. बाद में प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा के विचार से एक संघ बनाने की सम्भावना पर विचार किया. फलस्वरूप उनमें से अधिकांश सदस्य दिनांक ३० दिसम्बर १९०६ ईसवी को अखिल भारतीय मोहमडन शैक्षिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए ढाका (जहांगीराबाद) के शाहबाग में एकत्रित हुए. उल्लेखनीय है कि इस “मोहमडन एजुकेशनल कांफ्रेंस” की स्थापना सर सय्यद अहमद खान ने १८८९ ईसवी में मुस्लिमों में शिक्षा के प्रति जागरूकता फ़ैलाने के लिए की थी. उन्हीं दिनों बंगाल के विभाजन विरोधी आन्दोलन के दौरान कलकत्ता में इंडियन नेशनल कांग्रेस की बैठक हो रही थी. इस सम्मेलन में “आल इंडिया मुस्लिम लीग” की स्थापना का निर्णय लिया गया. बैठक के समाप्त होने के तत्काल बाद नवाब वकार-उल-मुल्क की अध्यक्षता में एक मीटिंग हुई. मुस्लिम लीग को राजनैतिक संघ का रूप दिए जाने का प्रस्ताव ढाका के नवाब सलिमुल्ला खान ने पेश किया, जिसका समर्थन हाकिम अजमल खान ने किया. इसमें लिए गए निर्णय के अनुसार इसी दिन “आल इंडिया मुस्लिम लीग” नामक एक सन्गठन अस्तित्व में आया. पहले का प्रस्तावित नाम “आल इंडिया मुस्लिम कोंफेदेर्न्सी” अस्वीकृत हो गया. लीग के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए एक कमेटी बनाई गई, जिसके संयुक्त सचिव नवाब मोहसिन-उल-मुल्क तथा वकार-उल-मुल्क मुश्ताक हुसैन थे. जबकि इसके पहले मानद या स्थाई अध्यक्ष आगा खान को बनाया गया.
इस प्रकार ३० दिसम्बर १९०६ को आगा खान, ढाका के नवाब सलिमुल्ला, मोहसिन-उल-मुल्क और वकार-उल-मुल्क के नेतृत्व में “आल इंडिया मुस्लिम लीग” अस्तित्व में आई.
मुस्लिम लीग के उद्देश्य-
१-    भारत के मुसलमानों के अंदर अंग्रेज सरकार के प्रति वफ़ादारी की भावना को प्रोत्साहित करना एवं यदि सरकार के किसी कार्य से उनके विचारों के बारे में भ्रान्ति उत्पन्न होती है, तो उसका स्पष्टीकरण करना.
२-    भारत के मुसलमानों के राजनितिक अधिकारों व् हितों की रक्षा करना एवं उनकी आवश्यकताओं व् आकांक्षाओं को आदरपूर्वक प्रस्तुत करना.
३-    लीग के प्रत्येक उद्देश्य के अंतर्गत मुसलमानों के बीच भारत के अन्य सम्प्रदायों के प्रति वैमनस्य को दूर करना.
इससे स्पष्ट है कि मुस्लिम लीग का उद्देश्य कांग्रेस की नीतियों का विरोध करना और भारत के मुसलमानों में अंग्रेजी सरकार के प्रति वफ़ादारी को बढ़ाना था. ढाका के नवाब सलिमुल्ला ने लीग के गठन को उस “रास्ते का रुख बदलने वाली घटना” करार दिया, जिसपर चलने की शुरुआत बीस वर्ष पहले सर सय्यद अहमद खान ने “मोहमडन एजुकेशनल कांफ्रेंस” की स्थापना करके कर दी थी.
हालाँकि इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्नाह ने ढाका के इस अधिवेशन में लिए गए निर्णय की निंदा की थी. उन्होंने इस अधिवेशन में भाग लेने के बजाये कलकत्ता में इसी समय आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेना ज्यादा जरूरी समझा. उधर प्रसिद्ध इतिहासकार और धर्मवेत्ता मौलाना शिबली नुमानी ने १९१२ ईसवी में लिखे अपने एक लेख में मुस्लिम लीग पर हमला करते हुए लिखा कि मुस्लिम लीग निहित स्वार्थों एवं अंग्रेजों के पिछ्लागुओं की पार्टी है, जिसका मुस्लिम जनता से कुछ भी लेना-देना नहीं है. उन्होंने इसकी तीखी आलोचना करते हुए इसे “अलिबुल खिलकत” कहा था. 
आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता का जन्म    (भाग-4) 
  
विशेष – यह लेख “भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन” (ज्ञान सदन प्रकाशन) जिसके (लेखक मुकेश बरनवाल) की पुस्तक में से सम्पादित किये गए कुछ अंश पर आधारित है 

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