धार्मिक बनाम साम्प्रदायिक (भाग-१)


“धर्म” शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत व्याकरण के “निरुक्त” के अनुसार “धृ” धातु से हुई है, जिसका तात्पर्य होता है- धारण करना. जो नियम, साधुता, भक्ति, न्याय, कर्तव्य और व्यवस्था को धारण करता है, वही “धर्म” कहलाता है. प्रोफेसर महावीर सरन जैन के अनुसार, जिन्दगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है. नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है. धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है, जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है और जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है.
धर्म या धार्मिक मूल्यों के अंतर्गत शिष्टाचार के मापदंड, नैतिक नियम, लौकिक नियम, शरीर के प्रति धर्म, समाज के प्रति धर्म, अन्य प्राणियों के प्रति धर्म और यहाँ तक की पेड़-पौधों आदि वनस्पति जगत के प्रति धर्म के रूप में नियम की वृहद व्याख्याएं मिलती हैं. महर्षि वेद व्यास के अनुसार- “प्रकृति के साथ-साथ व्यक्ति, राष्ट्र एवं लोक-परलोक सबको धारण करने का शाश्वत नियम ही धर्म है.” धर्म ज्ञान, भावना और कर्म की समष्टि है.
जब एक ही तरह के धार्मिक या दार्शनिक परंपरागत प्रथाओं, सिद्धांतों का प्रसार करने वाले या मानने वाले लोग इकट्ठे हो जाते हैं, तब सम्प्रदाय का निर्माण होता है. सम्प्रदायों को धर्मरूपी वृक्ष की विभिन्न शाखाएं कहा जा सकता है. धर्म में जो स्वीकार्य नहीं होता, उसी की प्रतिक्रिया के रूप में ये सम्प्रदाय बनते हैं. इस्लाम धर्म में शिया-सुन्नी भी उसी का उदाहरण हैं. सनातन धर्म में जैन, बौद्ध आदि भी सम्प्रदाय ही हैं.
सम्प्रदाय या साम्प्रदायिकता मूल रूप से एक विचारधारा है, जो धर्म से भिन्न होती है. यह एक विचारधारा है, एक दृष्टि है, जो समाज के विभिन्न मुद्दों पर –धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, राजनीति, धर्मनिरपेक्षता, इतिहास व् समाज के अन्य पहलुओं पर अपना मत व्यक्त करती है और अपनी इस प्रणाली से वह लगातार समाज में सक्रिय रहती है. जहाँ धर्म एक विश्वास प्रणाली है और अपने व्यक्तिगत विश्वासों के अंग के रूप में मनुष्य उसका पालन करता है. इसके विपरीत सम्प्रदायवाद धर्म पर आधारित सामजिक और राजनीतिक पहचान की विचारधारा का नाम है. साम्प्रदायिकता, धर्म का इस्तेमाल करती है, धर्म के साथ जुडी संकीर्णता, धर्म का पिछड़ापन व अन्धविश्वास की खुराक लेकर वह समाज में वैधता बनाने की कोशिश करती है और लोगों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो जाती है. सम्प्रदाय का एक बहुत सही वर्णन यह है कि यह धर्म का राजनीतिक व्यापार है. धर्म एवं साम्प्रदायिकता का क्षेत्र बिलकुल अलग-अलग है. धर्म में ईश्वर, परलोक, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, आत्मा व परमात्मा का विचार होता है. सच्चे धर्म एवं धार्मिक व्यक्ति का सारा ध्यान पारलौकिक, आध्यात्मिक जगत से सम्बन्धित होता है. धर्म में भौतिक जगत की कोई जगह नहीं होती है, जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का आध्यात्म से कुछ लेना-देना नहीं होता, और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता व्यापार इत्यादि की चिंता अधिक करते हैं.
धर्म एक सहज, नैसर्गिक, स्वाभाविक एवं प्राकृतिक प्रक्रिया है. धर्म सदा सनातन है. इसके विपरीत सम्प्रदाय किसी एक व्यक्ति द्वारा चलाया जाता है. या यूँ कहिये कि सम्प्रदाय किसी धर्म की सम्पादित व्यवस्था है जो किसी व्यक्ति विशेष द्वारा चलाया जाता है. धार्मिक व्यक्ति कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता और साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं हो सकता, अलबत्ता धार्मिक होने का ढोंग अवश्य कर सकता है.

विशेष – यह लेख “भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन” (ज्ञान सदन प्रकाशन) जिसके (लेखक मुकेश बरनवाल) की पुस्तक में से सम्पादित किये गए कुछ अंश पर आधारित है

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