धार्मिक बनाम साम्प्रदायिक (भाग-2)
महाभारत में युधिष्ठिर, जो स्वयं धर्मराज के नाम से जाने जाते हैं, ने कहा है-
“धारणात धर्म इत्याहु तस्मात धारयेत प्रजाः.” महाभारत शांति पर्व १०९११ धर्म को
धारण करता है ये शरीर. शरीर है तो धर्म है, धर्म है तो शरीर है.
“शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम”. शरीर ही धर्म के साधन का माध्यम है. अब ये शरीर
धर्म को कैसे धारण करता है? हमारे यहाँ उसे भी बताया गया है. धर्म के दस लक्षण
हैं. धृति (धेर्य), क्षमा, दम (दमन करना, मन की वृत्तियों का), अस्तेय( बाहर भीतर
से एक जैसा, कोई दिखावा नहीं, कोई चोरी नहीं), शौच (अतरंग और वाह्य शुचिता),
इन्द्रिय निग्रहः(इन्द्रियों को वश में रखना), धी( बुद्धिमत्ता का प्रयोग),
विद्द्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और
अक्रोध( क्रोध न करना). ये जो धर्म के दस लक्षण हैं, इसे हमारे यहाँ सनातन धर्म
कहा गया है. सनातन धर्म यानि सन+आतन. सन यानि तप और आतन यानी निकाला हुआ. अर्थात
यानि सनातन धर्म वह है जो बहुत ही तपस्या ( विचार मंथन, आत्ममंथन) के बाद निकाला
गया हो.
हमारा धर्म सनातन है, हम हिन्दू नहीं बल्कि सनातनी हैं. सनातन सम्प्रदाय नहीं
है. क्योंकि सम्प्रदाय तो वह है जिसको किसी एक व्यक्ति ने चलाया हो. सम्प्रदाय
यानि एक व्यक्ति, एक शक्ति को मानने वाला. इस्लाम मजहब अर्थात सम्प्रदाय है.
बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी, क्रिश्चियन आदि ये सब सम्प्रदाय हैं. हम हिन्दू हैं
लेकिन हमारा धर्म हिन्दू नहीं है, बल्कि हमारा धर्म सनातन है. हमारी भाषा हिंदी
नहीं बल्कि संस्कृत है. वास्तव में हिन्दू वो प्रत्येक व्यक्ति है जो सिन्धु नदी
के पार रहता है, मोटे तौर पर कहा जाये तो हिंदुस्तान में रहने वाला प्रत्येक
व्यक्ति हिन्दू है. हमारे यहाँ की जो भाषा थी वह संस्कृत या पाली भाषा थी. हमारे
यहाँ हिंदी भाषा कभी थी ही नहीं, भारतीय कवि केशवदास लिखते हैं-
भाषा बोलीन जानीं है जिनके कुल के दास भी भाषा नहीं बोलते, संस्कृत बोलते हैं
ऐसे महान कुल में मैं भाषा का मंदबुद्धि कवि केशवदास पैदा हुआ हूँ.
साम्प्रदायिक विचारधारा के विकास के तीन चरण होते हैं और उनमें एक तारतम्यता
होती है. साम्प्रदायिकता का प्रथम चरण उस समय प्रारम्भ हो जाता है, जब लोगों के
बीच यह विचारधारा जन्म लेती है कि एक ही धर्म को मानने वाले लोगों के धार्मिक ही
नहीं, बल्कि धर्मनिरपेक्ष हित भी समान होते हैं. सम्प्रदाय का द्वितीय चरण तब
प्रारम्भ होता है, जब लोगों में यह धारणा जन्म लेती है कि एक ही धर्म को मानने
वाले लोगों के धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष हित दुसरे धर्म को मानने वालों के इन दोनों
हित से भिन्न होता है. इसे उदार या नरमपंथी साम्प्रदायिकता कहा जाता है. क्योंकि
इसमें साम्प्रदायिकता की राजनीति तो है, परन्तु फिर भी उनकी आस्था कुछ हद तक
उदारवादी, लोकतान्त्रिक और राष्ट्रवादी मूल्यों में बनी रहती है. वे ये मानते हैं
कि भारत का निर्माण ऐसे विभिन्न धर्माधारित समुदायों से हुआ है, जिनके अलग-अलग तथा
विशेष हित हैं, जिनमें कभी-कभी टकराव की स्थिति भी आ जाती है, लेकिन इन विभिन्न
साम्प्रदायिक हितों में परस्पर समन्वय स्थापित किया जा सकता है तथा समान राष्ट्रीय
हितों से उनकी संगती दिखलाई जा सकती है और इस प्रकार भारत को एक राष्ट्र बनाया जा
सकता है. साम्प्रदायिकता का तृतीय चरण उस समय प्रारम्भ हो जाता है, जबकि व्यक्ति
के अंदर ये धारणा जन्म लेती है कि एक ही धर्म को मानने वाले लोगों के धार्मिक और
धर्मनिरपेक्ष हित दुसरे धर्म के लोगों के इन दोनों हितों से न सिर्फ भिन्न होता
है, बल्कि विरोधी भी होता है और जिसमें किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता. इसे उग्र
साम्प्रदायिकता कहा जाता है.
विशेष – यह लेख “भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन” (ज्ञान
सदन प्रकाशन) जिसके (लेखक मुकेश बरनवाल) की पुस्तक में से सम्पादित किये गए कुछ
अंश पर आधारित है





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