धर्मान्तरण बनाम धर्मनिरपेक्षता
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| प्रतीकात्मक |
पाकिस्तान के संस्थापक
मोहम्मद अली जिन्ना से जब एक सवाल किया गया कि पाकिस्तान की नींव कब पड़ी? जिन्ना ने जवाब दिया “जब देश का पहला व्यक्ति मुसलमान
बना।“ जिन्ना की बात सोलह आने सही थी। इस देश का विभाजन तब हुआ जब देश के
एक हिस्से में इतने बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुए कि मुसलमान बहुसंख्यक हो गए तब
अलग मुस्लिम देश की मांग उठने लगी। आज यह बात बार-बार याद आती है क्योंकि देश की
राजनीति धर्मांतरण और घर वापसी को लेकर गर्माई हुई है। आगरा में धर्म जागरण मंच ने
करीब 90 लोगों की जब घर वापसी
कराई तो इस देश की सेक्युलर जमात ने इस तरह से आसमान सिर पर उठा लिया मानो अनर्थ
हो गया हो,
इस
देश के सेक्युलरिज्म पर आंच आ गई हो। हमारी मीडिया दिन-रात चीख-चीख कर बताती रही
कि इसी तरह संघ परिवार का घर वापसी का अभियान चलता रहा, तो देश में भयंकर
सांप्रदायिक तनाव पैदा हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चुनाव में किया
गया विकास का वायदा खतरे में पड़ जाएगा। हमारे हिन्दूद्रोही विपक्ष ने तो इस
मुद्दे पर राज्यसभा चलने ही नहीं दी।
भारत
का इतिहास सबसे अलग है। भले ही मुसलमान एक जमाने में सारे भारत पर कब्जा करने में
कामयाब हो गए हों,
लेकिन
हिन्दू इस्लामी साम्राज्यवाद से पिछले 1300 साल से संघर्ष कर रहे हैं। इस्लाम हर हथकंड़े से
धर्मांतरण करने के बावजूद पूरे भारत को इस्लामी रंग से रंगने में कामयाब नहीं हो
पाया। इसका मतलब यह नहीं है कि इस देश में इस्लाम को सफलता नहीं मिली। धर्मांतरणों
के कारण जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक हो गए थे वहां पूर्वी और पश्चिमी
पाकिस्तान बना। इन इलाकों में इस्लाम की विजय का परचम फहर चुका है। इसके अलावा
कश्मीर घाटी धर्मांतरण के कारण मुस्लिम बहुल हो गई है, जो वहां के हिन्दू राजा
के चलते भारत में जरूर है,
लेकिन
उसका अलगाववाद हमेशा भारत के लिए सिरदर्द बना रहा है।
भारत
में हिन्दुओं को केवल इस्लामी साम्राज्यवाद ही नहीं वरन ईसाई विस्तारवाद का हमला
भी झेलना पड़ा है। गोवा में पुर्तगाली ईसाई शासन ने जुल्म की इंतहा कर दी और तीस
से चालीस प्रतिशत लोगों को ईसाई बनाने में कामयाबी हासिल की। 17वीं शताब्दी में
पुर्तगाली शासक फ्रांसिस जेविअर को हिंदुओं को ईसाई बनाते समय उनके पूजास्थलों को, उनकी मूर्तियों को तोडऩे
में अत्यंत प्रसन्नता होती थी। हजारों हिंदुओं को डरा-धमका कर, अनेकों को मार कर, अनेकों की संपत्ति जब्त कर, अनेकों को राज्य से निष्कासित
कर अथवा जेलों में डालकर ईसामसीह कि भेड़ों की संख्या बढ़ाने के बदले फ्रांसिस
जेविअर को ईसाई समाज ने संत की उपाधि से नवाजा था। दूसरी तरफ अंग्रेजों ने
मुसलमानों की तरह राज्य का सहारा लेकर धर्मांतरण नहीं कराया, उन्होंने इसकी सुपारी
ईसाई मिशनरियों को दी। अमेरिका और यूरोपीय देशों से मिशनरियां इस देश में सेवा का
लिबास ओढ़ कर आईं। अंग्रेज सरकार ने उन्हें पूरा संरक्षण और प्रोत्साहन दिया।
उन्हें इतनी जमीन दी गई कि आज भी इस देश में भारत सरकार के बाद सबसे ज्यादा जमीन ईसाई
मिशनरियों के पास हैं। उन्हें उत्तर-पूर्व के उन इलाकों में अपना धर्मांतरण का
कुचक्र चलाने की छूट दी गई,
जहां
बाकी लोगों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। यूरोपीय देशों से करोड़ों रूपया सेवा
के नाम पर आने लगा। देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को कहना
पड़ा था कि “भारत में ईसाई एक हाथ में बाइबल और दूसरे हाथ में यूनियन जैक को लेकर
चल रहे थे।“
यह तो थी स्वतंत्रता से पूर्व की बातें। पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियां भारत में अपने साम्राज्य को बरकरार रखने के लिए चर्च का इस्तेमाल कर रही थीं। प्रसिद्ध गांधीवादी कर्नवालिस कुमारप्पा ने एक बार कहा था कि पश्चिमी शक्तियों कि चार सेनाएं हैं। थलसेना, वायुसेना, नौसेना तथा चर्च। स्वयं एक ईसाई होने के बावजूद उनकी दृष्टि में चर्च और मिशनरियां अंग्रेजों कि सेना के रुप में कार्य कर रही थीं और अंग्रेजी साम्राज्य को बचाने के लिए कार्यरत थीं। धर्मांतरित ईसाइयों के मन में भारत के प्रति श्रद्धाभाव खत्म हो जाता था और वे अंग्रेजों के आज्ञाकारी सेवक बन जाते थे। यही कारण था कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जोसेफ कुमारप्पा व ई.एम. जॉर्ज के अलावा किसी और ईसाई का नाम प्रमुखता से नहीं आता है, लेकिन इन दोनों के द्वारा स्वतंत्रता की मांग किये जाने के कारण इन्हें जान से मारने की धमकी भी दी गई थी। भारतीय ईसाइयों ने इन दोनों की न केवल निंदा की, बल्कि इनका सामाजिक बहिष्कार भी किया।
यह तो थी स्वतंत्रता से पूर्व की बातें। पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियां भारत में अपने साम्राज्य को बरकरार रखने के लिए चर्च का इस्तेमाल कर रही थीं। प्रसिद्ध गांधीवादी कर्नवालिस कुमारप्पा ने एक बार कहा था कि पश्चिमी शक्तियों कि चार सेनाएं हैं। थलसेना, वायुसेना, नौसेना तथा चर्च। स्वयं एक ईसाई होने के बावजूद उनकी दृष्टि में चर्च और मिशनरियां अंग्रेजों कि सेना के रुप में कार्य कर रही थीं और अंग्रेजी साम्राज्य को बचाने के लिए कार्यरत थीं। धर्मांतरित ईसाइयों के मन में भारत के प्रति श्रद्धाभाव खत्म हो जाता था और वे अंग्रेजों के आज्ञाकारी सेवक बन जाते थे। यही कारण था कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जोसेफ कुमारप्पा व ई.एम. जॉर्ज के अलावा किसी और ईसाई का नाम प्रमुखता से नहीं आता है, लेकिन इन दोनों के द्वारा स्वतंत्रता की मांग किये जाने के कारण इन्हें जान से मारने की धमकी भी दी गई थी। भारतीय ईसाइयों ने इन दोनों की न केवल निंदा की, बल्कि इनका सामाजिक बहिष्कार भी किया।
स्वतंत्रता
के बाद चर्च ने अपना वही भारत विरोधी कार्य जारी रखा। उत्तर-पूर्व के राज्यों में
चर्च की करतूतों से चर्च के असली राजनीतिक मंशा का पता चलता है। उत्तर-पूर्व के
राज्यों में चर्च को मिली खुली छूट के कारण नागालैण्ड जैसे राज्य अलगाव की बात
करते हैं। वहां नागालैण्ड में क्वाइस्ट फॉर नागालैण्ड के नारे लगते रहते हैं।
मिजोरम में भी यही हालात है। वहां रियांग जनजाति के 60 हजार लोगों को चर्च
समर्थित ईसाई आतंकवादियों द्वारा अपना धर्म न बदलने के कारण मिजोरम से बाहर भेज
दिया। रियांग जनजाति के लोग अब शरणार्थी के रुप में जीवन जीने को मजबूर हैं। केवल
नागालैण्ड में 40
ईसाई
मिशनरी समूह तथा 18
आतंकवादी
संगठन काम कर रहे हैं। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैण्ड हिंसक आतंकवादी
संगठनों को वल्र्ड काउंसिल ऑफ चर्चेस के माध्यम से धनराशि तथा शस्त्र प्रदान
करवाये जाते रहे हैं। ये विदेशी शक्तियां एके-47 के माध्यम से बंदूक किनोक पर धर्मांतरण करवा रही हैं।
इसके अलावा भारत के सुरक्षा बल भी चर्च समर्थित आतंकवादी संगठनों के निशाने पर
हैं। अब तक इस इलाके में 50
हजार
सुरक्षाकर्मी बलिदान दे चुके हैं। उत्तर-पूर्व के बाकी राज्यों में भी यही हाल है।
त्रिपुरा में नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (एनएलएफटी) नामक एक आतंकी संगठन काम
करता है। उत्तरी त्रिपुरा के नागमनलाल हलाम जिले में बाप्टिस्ट मिशनरी चर्च से
हथियारों का जखीरा पकड़ा गया था। इस चर्च के सचिव ने स्वीकार किया है कि यह हथियार
तथा विस्फोटक आतंकवादी संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के आतंकियों के लिए
था।
बढ़ते
धर्मांतरण से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी हिन्दू संस्थाएं भले ही चिंतित हो, लेकिन देश ने जो
सेक्युलर व्यवस्था अपनाई है उसके लिहाज से इन सब बातों का कोई महत्व नहीं है। उसकी
नजर में हिन्दू,
मुसलमान
और ईसाई सब बराबर हैं।
भारत, एशिया और अन्य विकासशील
देशों में ईसाइयत को फैलाने के पीछे अमेरिका और यूरोपीय देशों का कोई आध्यात्मिक प्रयोजन
नहीं है। इन देशों की ईसाइयत में कोई आस्था नहीं है। वहां तो चर्च अब खाली पड़े
हुए हैं। इसलिए ईसाइयत की उनके अपने लिए कोई सार्थकता नहीं है, लेकिन इसका वे विकासशील
देशों को निर्यात जरूर करते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह वे आउट ऑफ डेट टेक्नोलॉजी और
दवाओं को विकासशील देशों में डंप कर देते हैं।
इस
धर्मांतरण के जरिये ईसाइयत दुनिया का सबसे बड़ा धर्म बन गया है, तो इस्लाम तेजी से
फैलनेवाला धर्म। यहां तक कि कई देशों की जेलों तक में इस्लाम में धर्मांतरण होता
है। सोशल मीडिया के युग में इंटरनेट पर जगह- जगह विज्ञापन मिल जाएंगे। वैसे आपके
मन में यह सवाल उठ सकता है कि इस्लाम कैसे सबसे तेजी से फैलनेवाला धर्म बन गया? तो इसका राज यह है कि
दुनिया में 56
इस्लामी
देश है। इन देशों में इस्लाम छोड़कर कोई अन्य धर्म नहीं अपना सकता। पर गैर-मुस्लिम
चाहें तो उन्हें इस्लाम अपनाने पर कई तरह कि सुविधाएं मिलती हैं। अभिनेत्री ममता
कुलकर्णी का पति विक्की शर्मा ड्रग तस्कर है। एक इस्लामी देश में वह तस्करी के
आरोप में गिरफ्तार हुआ,
जहां
उसे मौत की सजा भी हो सकती थी, लेकिन उसने इस्लाम कबूल किया और उसकी सजा माफ हो गई
और वह रिहा हो गया। इस्लामी देशों मे इस्लाम वन वे ट्रैफिक है। इस तरह मुसलमान देश
अपने देश में किसी दूसरे धर्मवाले को धर्मांतरण नहीं करने देते, लेकिन गैर-मुस्लिम देशों
में वे बेरोकटोक धर्मांतरण करते हैं। उनकी कोशिश इन देशों में धर्मांतरण के जरिये
बहुसंख्य होने की होती है। इस तरह गैर-मुस्लिम देशों की उदारता का लाभ उठाकर
इस्लाम सबसे तेजी से फैलने वाला धर्म बन गया है। इस्लाम का जोर “दारुल इस्लाम”
बनाने पर है तो ईसाइयत का “किंगडम ऑफ गॉड” बनाने पर। नए जमाने के अनुकूल इस्लाम
पॉपुलेशन जिहाद पर ज्यादा महत्व देने लगा है। इसके तहत उसकी कोशिश होती है कि किसी
देश में मुसलमानों की अधिकतम आबादी बनाने की कोशिश की जाए।
अफ्रीका
महाद्वीप में इस्लाम और ईसाइयत में धर्मांतरण की होड़ चल रही है। नाईजीरिया में 48 प्रतिशत ईसाई हैं तो 46 प्रतिशत मुस्लिम। सूडान
में एक हिस्सा मुसलमान है तो दूसरा ईसाई। यह टकराव अफ्रीका को काफी तनावपूर्ण बना रहा
है। ये दोनों धर्म वैश्विक हैं और इनका धर्मांतरण का काम वैश्विक स्तर पर चलता है।
तीसरे नंबर का धर्म हिन्दू धर्म है लेकिन उसकी आबादी केवल भारत और नेपाल में ही
है। दूसरी बात यह है कि हिन्दू धर्म में धर्मांतरण का प्रावधान नहीं है। पहले बहुत
से हिन्दू बौद्ध धर्म या जैन धर्म की दीक्षा ले लेते थे मगर उनके बीच में कोई
अभेद्य दीवार नहीं थी। मसलन आदि शंकराचार्य के बारे मे कहा जाता है कि उन्होंने
भारत में बौद्ध धर्म का खात्मा किया, जबकि असलियत यह है कि उन्हें उनके विरोधी-प्रच्छन्न
बौद्ध कहते थे। यह भी कहा जाता था कि शंकराचार्य ने ही अपनी गया यात्रा के दौरान
भगवान बुद्ध को नौवां अवतार घोषित किया था। इस कारण हिन्दू संगठन भारतीय धर्मों और
अभारतीय धर्मों के बीच फर्क करते हैं। उनका मानना है भारत में जन्म लेने के कारण
बौद्ध, जैन, सिख भारतीय धर्म हैं, जबकि इस्लाम और ईसाईयत
अभारतीय धर्म हैं। अब तक इन विदेशी धर्मों के धर्मांतरण रूपी हमलों को हिन्दू धर्म
सहता रहा,
लेकिन
उन्नीसवीं सदी में हिन्दू धर्म के कई विचारकों को लगा कि इस तरह के निरंतर क्षरण
से हिन्दू धर्म एक मरता हुआ धर्म होता जा रहा है जिसकी आबादी लगातार कम होती जा
रही है। बावजूद इसके,
उसने
बचाव की कोशिश या जवाबी हमला करने की कोशिश नहीं की। तब स्वामी दयानंद ने बिछड़े
हुए लोगों को वापस लाने के लिए “शुद्धि आंदोलन” चलाया। यह हिन्दू धर्म से बड़े
पैमाने पर हुए धर्मांतरणों का कोई ठोस जवाब तो नहीं था लेकिन हमेशा उदासीन
रहनेवाले हिन्दू समाज में पहली बार प्रतिक्रिया हुई थी। अब हिन्दू संगठनों को
सैद्धांतिक तौर पर ही सही शुद्धि की बात रास आने लगी थी। बाद में आर्य समाज के ही
स्वामी श्रद्धानंद ने दलितों की घर वापसी के लिए काम किया और उसके कारण शहीद हुए।
इसके बाद जिन संस्थाओं ने धर्मांतरण के लिए काम किया वह ईसाइयों की घर वापसी का ही
ज्यादा हिस्सा था,
क्योंकि
उनका धर्मांतरण आसान था। इस्लाम से धर्मांतरण कराना टेढ़ी खीर था। उससे
सांप्रदायिक तनाव बढऩे और जान जाने तक का खतरा होता था। फिर इस्लाम के बारे में यह
धारणा थी कि वहां वन-वे-ट्रैफिक होता है। आप आ तो सकते हैं पर जा नहीं सकते। वैसे
इतिहास में इस्लाम से पहली घर वापसी कराने का श्रेय छत्रपति शिवाजी को जाता है।
उन्होंने अपने सेनापति नेताजी पालकर की घर वापसी कराई थी जो एक युद्ध में पकड़े
जाने के बाद मुसलमान बन गया था। वैसे महाकवि भूषण ने भारत को मुस्लिम मुल्क नहीं
बनने देने का श्रेय शिवाजी को दिया है। वे कहते हैं – ”काशी हूं की कला जाती, मथुरा मसीत होती, शिवाजी न होते तो सुन्नत
होती सबकी।’’
हिन्दू
समाज का यह दुर्भाग्य है कि शिवाजी के बाद फिर किसी राजा ने, उनके राजनीतिक
उत्तराधिकारी पेशवाओं ने मुस्लिम शासन द्वारा जबरन या दबाव डालकर मुसलमान बनाए गए
हिन्दुओं की घर वापसी की कभी कोशिश नहीं की। घर वापसी न होने का नतीजा हमें कश्मीर
में देखने को मिलता है। कश्मीर में कई मुस्लिम बादशाहों ने 500 वर्षों तक हमले किए। हर
बादशाह हिन्दुओं को धर्मांतरित करता रहा। इस तरह कश्मीर एक दिन मुस्लिम बहुल बन
गया। सबसे आखिर में हिन्दू राजा बने पर धर्मांतरण का उनके धर्म में प्रवधान ही
नहीं था,
इसलिए
उन्होंने कभी मुसलमानों को धर्मांतरित करने की कोशिश नहीं की। यदि ऐसा किया जाता
तो, कश्मीर की अलगाववाद की
समस्या इतनी विकट नहीं होती। पिछली सदी के उत्तरार्ध में शुद्धि आंदोलन के जरिये घर
वापसी के आंदोलन को जारी रखा।
सरसंघचालक
मोहन भागवत ने स्पष्ट रूप से कहा कि पिछले हजार वर्षों की गुलामी में जो लोग
हिन्दू समाज से बिछड़ गए हैं, उन्हें घर वापस लाना हमारा काम है। जब तक धर्मांतरण
हिन्दुओं से ईसाइयों,
या
इस्लाम में हो रहा था तब तक उन्हें लगता था सब कुछ ठीक-ठाक है, देश में सेक्युलरिज्म
फल-फूल रहा है,
मगर
जब धर्मांतरण ईसाइयों और इस्लाम धर्म से हिन्दू धर्म में होने लगा तो उन्होंने शोर
मचाना शुरू कर दिया कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होने लगा है, देश का सेक्युलर ढांचा
चरमराने लगा है। उन्हें एक बार भी नहीं लगा कि घर वापसी भी धर्मांतरण ही है और
भारतीय संविधान के अनुसार हर एक को धर्मांतरण का अधिकार है। नतीजा यह हुआ की
मीडिया के इस शोर-शराबे के आगे झुक कर विश्व हिन्दू परिषद को अपने घर वापसी अभियान
पर कुछ समय के लिए लगाम लगानी पड़ी।
घर
वापसी अभियान को विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष चंपत राय हिन्दू समाज का
रिक्लेमेशन प्रोजेक्ट कहते हैं। हालांकि इस प्रोजेक्ट में सबसे बड़ी बाधा है
हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था यानी जिन लोगों को वापस बुलाया जा रहा है उन्हें किस
जाति में रखा जाए। जाति हमेशा ही हिन्दू समाज के सामने समस्या रही है। बहुत से
लोगों ने तो इस ऊंच-नीच की सोच पर आधारित जाति व्यवस्था के कारण हिन्दू धर्म
छोड़ा। कुछ दशक पहले तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम गांव में हिन्दू समाज की ऊंच-नीच पर
आधारित जाति व्यवस्था से ऊबकर दलितों ने इस्लाम को अपनाया था। तब भी धर्मांतरण को
लेकर तीखी बहस छिड़ गई थी।
धर्मांतरण
पर लगाम लगाने की दिशा में कांग्रेस के कई नेताओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
स्वयं महात्मा गांधी मानते थे कि मिशनरियों द्वारा किया जाने वाला धर्मांतरण एक
अनावश्यक हिंसा है। कई और कांग्रेसी नेता भी मिशनरियों के मंसूबों से भलीभांति
परिचित थे। तभी तो संविधान सभा में अनुच्चेद 25 पर बहुत लंबी बहस के बाद अपने धर्म के प्रचार की
अनुमति मिली,
धर्मांतरण
की नहीं। मध्यप्रदेश के रविशंकर शुक्ल की सरकार ने मिशनरियों की गतिविधियों और फंड
की जांच करने के लिए नियोगी आयोग बनाया था। इस आयोग में सात सदस्य थे, जिनमें एक ईसाई सदस्य भी
था। 1956
ई.
में इस आयोग ने 1500
पृष्ठों
की विस्तृत रिर्पोट प्रस्तुत की थी। आयोग ने म.प्र. के 26 जिलों के 700 गांवों के लोगों से
साक्षात्कार किया। आयोग ने मतान्तरण के अनेक भ्रष्ट तथा अवैध तरीकों का भण्डाफोड़
किया। धर्मांन्तरण की सबसे प्रेरक-शक्ति विदेश धन बतलाया, जिसका छोटा सा अंश ही
भारतीय स्रोतों से प्राप्त होता है। आयोग ने अनेक सुझाव दिए। आयोग ने कहा कि
ईसाइयों ने न केवल अलगाव बढ़ाया बल्कि स्वतंत्र राज्य की मांग भी इसके पीछे दिखाई पड़ती है। ईसाइयों
द्वारा धर्मांतरण और हिन्दू संगठनों द्वारा की जा रही घर वापसी से ओडिशा के कंधमाल
और गुजरात के डांग में काफी तनाव की स्थिति रही है। पहले विदेशी मिशनरी स्टेंस की
हत्या हुई,
बाद
में विश्व हिन्दू परिषद के लक्ष्मणामंद की।
साभार- uday india
मूल लेखक- सतीश पेड़देकर
सम्पादन- मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”
मूल लेखक- सतीश पेड़देकर
सम्पादन- मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”











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