भगवा अधर्म और अज्ञान के अंधकार को मिटाकर धर्म का ज्ञान फैलाता है

आज भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा है लेकिन प्राचीन भारत में हमारे महापुरुषों ने अपना ध्वज भगवा ही रखा है. भगवा ध्वज का एतिहासिक एवं सांस्कृतिक ध्वज है. भगवा भारतीय संस्कृति का शास्वत सर्वमान्य प्रतीक है. भगवान श्रीविष्णु, श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे ज्ञानी पुरुषों सहित महानवीर छत्रपति शिवाजी का का ध्वज भगवा ही रहा है. दुसरे शब्दों में कहें आर्यावर्त काल से ही हमारे देश का ध्वज भगवा ही रहे. भगवा ध्वज दीर्घकाल से हमारे इतिहास का मूक साक्षी रहा है. इसमें हमारे पूर्वजों, ऋषियों और माताओं के तप की पवित्रता का रंग है. वास्तव में भगवा ध्वज ही भारतीय संस्कृति, सभ्यता और शौर्य का प्रतिनिधित्व करता है, यही हमारा मार्गदर्शक है, गुरु है, प्रेरणास्रोत है. दुसरे शब्दों में सनातन संस्कृति का प्रतीक है परम पवित्र भगवा ध्वज.

सूर्य को सनातन माना गया है और हमारी संस्कृति सत्य, सनातन, चिरंतन, है. भगवा ध्वज का रंग प्रभात के सूर्य का रंग का प्रतीक है. वैदिक संस्कृति में सूर्य को प्रमुख देवता माना गया है. इसीलिए उगते हुए सूर्य को नमस्कार किया जाता है. क्योंकि जिस प्रकार उगता हुआ सूर्य रात्रि के अंधकार को मिटाकर प्रकाश देता है ठीक उसी प्रकार भगवा ध्वज भी अधर्म और अज्ञान के अंधकार को मिटाकर धर्म का ज्ञान फैलाता है. भगवा सिखाता है कि हम सब निःस्वार्थ होकर, सहज भाव से मानवता का प्रकाश फैलाएं और बिना किसी भेदभाव के समस्त प्राणियों की नित्य और अखंड सेवा करें. इसी  भगवा रंग को संयम, संकल्प और आत्मनियंत्रण का भी प्रतीक माना गया है. भगवा रंग शौर्य, बलिदान और वीरता का प्रतीक भी है.


शास्त्रों के अनुसार हमारे शरीर में 7 प्रकार के चक्र स्थित हैं. १-मूलाधार 2-स्वाधिष्ठान 3- मणिपुर 4- अनाहत ५- विशुद्धि ६-आज्ञा 7 सहस्रार.
मूलाधार चक्र हमारे भौतिक शरीर के गुप्तांग, स्वाधिष्ठान चक्र उससे कुछ ऊपर, मणिपुर नाभि स्थान में, अनाहत ह्रदय में, विशुद्धि चक्र कंठ में, आज्ञा चक्र दोनों भौहों के बीच जिसे भृकुटी कहा जाता है और सहस्रार चक्र हमारे सिर के चोटी वाले स्थान पर स्थित होता है. प्रत्येक चक्र का अपना एक रंग है. भगवा रंग आज्ञा चक्र का रंग है और आज्ञा ज्ञान प्राप्ति का सूचक है. जो लोग आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं या आध्यात्मिक मार्ग पर चलना चाहते हैं उन लोगों को भगवा रंग धारण करना होता है.

पूर्ण स्वातंत्र्य के अग्रदूत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार की मान्यता थी कि “भारत अत्यंत प्राचीन काल से एक राष्ट्र है और राष्ट्र जीवन के सभी प्रतीक, यहां सदा विद्यमान रहे हैं। फलत: हमारी राष्ट्रीय आकांक्षाओं, जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि एवं सम्पूर्ण इतिहास के गौरव को हमारे सम्मुख रखने वाला भगवा ध्वज सदैव से राष्ट्र के मानबिन्दुओं के रूप में हमारे आदर और श्रद्धा का केन्द्र रहा है।“ इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कभी यह विचार करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी कि संघ का ध्वज कौन सा हो। परंपरा से चले आ रहे राष्ट्रध्वज रूपी भगवाध्वज को ही संघ ने अपने ध्वज के नाते अपना लिया।
भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने "अवर फ्लैग" नामक पुस्तक प्रकाशित की हुई है। इस पुस्तक के पृष्ठ क्र.6 पर निम्नलिखित विवरण दिया है-
"1929 के लगभग बैजवाड़ा में हुए कांग्रेस अधिवेशन में आंध्र के एक युवक ने एक ध्वज तैयार किया और उसे गांधी जी के पास ले गया। यह दो रंग का था-लाल और हरा-दो प्रमुख समुदायों का प्रतीक। गांधी ने बीच में एक सफेद पट्टी जोड़ने का सुझाव दिया ताकि भारत के शेष समुदायों का भी प्रतिनिधित्व हो सके और चर्खे का भी सुझाव दिया जोकि प्रगति का प्रतीक था। इस प्रकार तिरंगे का जन्म हुआ। पर अभी इसे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने अधिकृत रूप से स्वीकार नहीं किया था। फिर भी गांधी जी के अनुमोदन का प्रभाव यह पड़ा कि वह पर्याप्त लोकप्रिय हो गया और सभी कांग्रेस अधिवेशनों के अवसर पर फहराया जाने लगा।"
राष्ट्रीय ध्वज के विषय में ठीक से निर्णय करने के लिए सात सदस्यों की एक समिति बना दी गई। इस समिति के सदस्य थे-1-सरदार वल्लभ भाई पटेल, 2-पं. जवाहर लाल नेहरू, 3-डा. पट्टाभि सीतारमैया, 4-डा.ना.सु.हर्डीकर, 5-आचार्य काका कालेलकर, 6-मास्टर तारा सिंह और 7-मौलाना आजाद।
इस ध्वज समिति ने सब दृष्टि से विचार कर सर्वसम्मति से अपना जो प्रतिवेदन दिया, उसमें लिखा- "हम लोगों का एक मत है कि अपना राष्ट्रीय ध्वज एक ही रंग का होना चाहिए। भारत के सभी लोगों का एक साथ उल्लेख करने के लिए उन्हें सर्वाधिक मान्य केसरिया रंग ही हो सकता है। अन्य रंगों की अपेक्षा यह रंग अधिक स्वतंत्र स्वरूप का तथा भारत की पूर्व परंपरा के अनुकूल है।" निष्कर्ष के रूप में उन्होंने आगे लिखा, "भारत का राष्ट्रीय ध्वज एक रंगा हो और उसका रंग केसरिया रहे तथा उसके दंड की ओर नीले रंग में चर्खे का चित्र रहे।"
ध्वज समिति का यह प्रतिवेदन राष्ट्रीय एकात्मता की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसमें अलग अलग सम्प्रदायों के प्रतिनिधित्व के रूप में अलग-अलग रंगों को स्थान नहीं दिया गया था, जैसा कि तब तक तिरंग झंडे में चला आ रहा था। हालाँकि यह ध्वज समिति की सर्वसम्मत संस्तुति थी, तो भी इस पर कांग्रेस कार्यसमिति की मुहर लगना आवश्यक था। अंतिम निर्णय वहीं होना था।
ध्वज समिति का यह प्रतिवेदन प्रकाशित होने पर सभी को बहुत प्रसन्नता हुई। किंतु आशंका थी गांधी जी की ओर से, तिरंगा गांधी जी द्वारा ही प्रचलित किया गया था, किंतु ध्वज समिति ने तिरंगे को पूरी तरह से नकार दिया था, अत: गांधी जी इस प्रतिवेदन को अस्वीकार कर सकते हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी। डाक्टर हेडगेवार ऐसी स्थिति को टालने के लिए सक्रिय हो गए।
लोकनायक बापूजी अणे कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य थे। कार्यसमिति की बैठक दिल्ली में होने वाली थी और लोकनायक अणे भी उसमें भाग लेने दिल्ली जाने वाले थे। वे केसरिया रंग के पक्षधर नहीं थे, भगवा रंग के पक्षधर थे। डाक्टर हेडगेवार उनके पास गए और उन्हें समझाया कि केसरिया और भगवा रंग कोई दो रंग नहीं हैं। इनमें बहुत ही मामूली सा अंतर है, मूलत: वे एक ही हैं। दोनों ही लाल व पीले रंग के सम्मिश्रण हैं। केसरिया रंग में लाल की तुलना में पीला रंग थोड़ा सा अधिक होता है और भगवा रंग में पीले की अपेक्षा लाल रंग थोड़ा सा अधिक होता है। अत: केसरिया ध्वज के समर्थन का अर्थ भगवा ध्वज का ही समर्थन है। डाक्टर जी ने आगे कहा-"यद्यपि काफी अध्ययन और खोज के उपरांत समिति ने केसरिया रंग का सुझाव दिया है, पर गांधी जी के सम्मुख सब मौन हो जाएंगे। गांधी जी ने केसरिया को अमान्य कर तिरंगे को ही बनाए रखने का आग्रह किया, तो ये नेता मुंह नहीं खोलेंगे। अत: आपको आगे आकर निर्भयतापूर्वक अपने पक्ष का प्रतिपादन करना चाहिए।"-डा.हेडगेवार चरित्र, प्रथम संस्करण, पृ.251

डाक्टर जी के यह बताने पर कि केसरिया रंग और भगवा रंग में कोई विशेष अंतर नहीं है, बापू जी मान गए और उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति में केसरिया ध्वज का समर्थन करने का आश्वासन दे दिया। किंतु डा. हेडगेवार जी ने अपने कर्तव्य की इतिश्री यहीं नहीं मान ली। वे किसी भी विषय में प्रयत्न एक साथ कई दिशाओं से करते थे। अत: वे स्वयं भी दिल्ली पहुंच गए और लोकनायक अणे के आवास पर ही जम गए। लोकनायक के ही कथनानुसार- "वे दिन भर दिल्ली में इधर उधर घूमते रहते थे। अत: निश्चय ही वे कार्यसमिति के अन्य सदस्यों से भी इस संबंध में मिले होंगे।"
लेकिन हुआ वही, जिसकी डाक्टर जी को आशंका थी। श्री हो.वे. शेषाद्रि के अनुसार-"परंतु, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति गांधीजी के मन की तिरंगी योजना से मतभेद करने का साहस न कर सकी और उसने सीधे उसे ही स्वीकृति दे दी। जिस मानसिक पृष्ठभूमि के कारण यह निर्णय लिया गया, वह घोर दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ।"(...और देश बंट गया, पृष्ठ-138)
डा.हेडगेवार की सारी मेहनत बेकार गई। ध्वज समिति का प्रतिवेदन अमान्य कर दिया गया और तिरंगे को बनाए रखने का निर्णय ले लिया गया। हां, डाक्टर जी की दौड़ धूप का इतना परिणाम अवश्य निकला कि तिरंगे में गहरे लाल रंग के स्थान पर केसरिया रंग मान लिया गया और इस रंग का क्रम सबसे ऊपर कर दिया गया। इससे पहले लाल रंग की पट्टी सबसे नीचे रहती थी।
चारों ओर से होने वाली साम्प्रदायिकता विषयक आलोचनाओं से बचने के लिए कांग्रेस द्वारा रंगों की व्याख्या में परिवर्तन किया गया और कहा गया कि तीन रंग विभिन्न सम्प्रदायों के द्योतक न होकर गुणों के प्रतीक हैं- केसरिया रंग त्याग का, सफेद रंग शांति का तथा हरा रंग हरियाली का प्रतीक है। किंतु यह व्याख्या आज तक किसी के गले नहीं उतरी, स्वयं कांग्रेस के भी नहीं।

नारायण हरि पालकर के अनुसार, "इस प्रकार समिति के सारे परिश्रम पर पानी फिर गया तथा राष्ट्र ध्वज का प्रश्न इतिहास और परंपरा के आधार पर निश्चित न होते हुए, व्यक्ति की इच्छा और धारणा से तय हुआ। (डा.हेडगेवार चरित्र, पृ.251)

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