मुसलमान सो दोस्ती हिन्दूअन सो कर प्रीत- रविदास

संत रविदास का नाम एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक कवि और एक बुद्धिजीवी के रूप में जाना जाता है. संत रविदास का जन्म १३९८ के आसपास का माना जाता है. हिन्दू धर्म के अनुसार संत रविदास का जन्म माघ माह की पूर्णिमा को वाराणसी के निकट मंडूर नामक गाँव में हुआ था. उनके पिता का नाम संतोखदास (रग्घू) और माता का नाम कर्मा (घुरविनिया) था. उनका पैतृक व्यवसाय चमड़े के जूते बनाना था. संत रविदास कबीर के समकालीन माने जाते हैं. कबीर ने ही “संतन में रविदास” कहकर मान्यता दी थी. 
बचपन में संत रविदास अपने गुरु पंडित शारदानन्द के पाठशाला गए. पंडित शारदानंद ने उन्हें अपनी पाठशाला में दाखिला देकर उन्हें शिक्षा दी. पाठशाला में पढ़ने के दौरान रविदास पंडित शारदानंद के पुत्र के मित्र बन गए.
भगवान् के प्रति उनका घनिष्ठ प्रेम और भक्ति के कारण वो अपने पारिवारिक व्यापार और माता-पिता से दूर हो रहे थे. यह देखकर उनके माता-पिता ने उनका विवाह लोना देवी से करा दिया जिससे उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने विजयदास रखा.

साभार 
संत रविदास अपने काम के प्रति हमेशा समर्पित रहते थे. वे बाहरी आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे. एक बार उनके पडोसी गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तब उन्होंने संत रविदास को भी गंगा स्नान पर चलने के लिए कहा. इस पर संत रविदास ने कहा कि “ मैं आपके साथ जरूर चला जाता लेकिन मुझे किसी के जूते बनाकर देने हैं और मैंने उसके लिए उससे वादा भी किया हुआ है. अगर मैं तुम्हारे साथ गंगा स्नान को चलूँगा तब मेरा वचन झूठा साबित हो जायेगा और मेरा मन जूते बनाने की ओर लगा रहेगा. इसलिए जब मेरा मन ही वहां नहीं होगा तो गंगा स्नान का अर्थ रह जाता है और यहीं से शुरू हुई “मन चंगा तो कठौती में गंगा”.

संत रविदास समाज में फैली जाति-पांति, छुआछूत, धर्म-सम्प्रदाय, वर्ण विशेष जैसी भयंकर बुराइयों से बेहद आहत थे. समाज से इन बुराइयों को जड़ से समाप्त करने के लिए संत रविदास ने अनेक मधुर व् भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया. संत रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिये समाज में एक नई चेतना का संचार किया. उन्होंने लोगों को पाखंड एवं अन्धविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया. संत रविदास कहते थे कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सभी नाम परमेश्वर के ही हैं और वेद, कुरआन, पुराण आदि सभी एक ही परमेश्वर का गुणगान करते हैं.
“कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, सब लग एकन देखा.
वेद कतेब, कुरान, पुरानन, सहज एक नहीं देखा..”

संत रविदास ने एक जगह लिखा है-
“कह रैदास तेरी भगति दूरी है, भाग बड़े सो पावै.
तजि अभिमान मेटी आपा पर, पिपिलक ह्वै चुनि खावै.”
संत रविदास का अटूट विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परोपकार तथा सद्व्यवहार का पालन करना अति आवश्यक है. उनका मानना था कि सच्ची मानवता ही ईश्वर भक्ति है.
प्रतीकात्मक 
इतिहासकारों की माने तो कृष्ण भक्त मीरा ने रविदास से श्रद्धापूर्ण आग्रह किया कि वे कुछ समय चित्तौड़ में भी बिताये. संत रविदास चित्तौड़ में कुछ समय तक रहे और अपनी ज्ञानपूर्ण वाणी से वहां के निवासियों को भी अनुग्रहित किया.
एक पद में रविदास ने कहा है कि-
“वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की.
संदेह-ग्रंथि खंडन-निपन, बानि विमुल रैदास की..”
 उनका मानना था कि
“सब में हरि है, हरि में सब है, हरि आप ने जिन जाना.
अपनी आप शाखी नहीं दूजो जानन हार सयाना.
मन चिर होई तो कोऊ न सूझे जाने जीवनहारा.
कह रैदास विमल विवेक सुख सहज स्वरूप संभारा..”
संत रविदास ने कई बार व्यंगात्मक शैली का भी उपयोग किया है-
“हरि सा हीरा छांड कै, करै आन की आस.
ते नर जमपुर जाहिंगे, संत आशै रविदास..”
संत रविदास ने सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रवाद भावना को भी जागृत करने का प्रयास किया-
“रैदास कनक और कंगन माहि जिमी अंतर कछु नाहीं.
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि..
हिन्दू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा.
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोई रैदासा..”

संत रविदास का कहना था कि-
“मुसलमान सो दोस्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत.
रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत..”
संत रविदास ने लोगों को यह भी समझाने का प्रयत्न किया कि सारे तीर्थ मनुष्य मात्र के मन में ही बसे हैं-
“का मथुरा का द्वारिका का काशी हरिद्वार.
रैदास खोजा दिल आपना तह मिलिया दिलदार..”
रविदास ने कभी भी जाति-पाति को नहीं माना बल्कि उन्होंने हमेशा उसका विरोध ही किया-
“रैदास एक बूँद सो सब ही भयो वित्थार.
मुरखी है जो करति है, वरन अवरन विचार..”
संत रविदास ने हमेशा साधू-संतों का सम्मान किया और समाज से भी साधुओं के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास रखने पर जोर दिया-
“साध का निन्दकु कैसे तरै.
सर पर जानहु नरक ही परे.”
संत रविदास ने जाति-पाति के अलावा ऊंच-नीच के भेदभाव को भी खत्म करने का पूरा प्रयत्न किया. वो लिखते हैं कि-
“रैदास जन्म के कारणों, होत न कोई नीच.
नर को नीच करि डारि है, ओहे कर्म की कीच..”
साभार 
संत रविदास द्वारा रचित “रविदास के पद”, “नारद भक्ति सूत्र”, “रविदास की बानि’. आदि संग्रह भक्तिकाल की अनमोल कृतियों में गिनी जाती हैं. स्वामी रामानन्द के ग्रन्थ के आधार पर संत रविदास का जीवनकाल संवत १४७१ से १५९७ है.
ऐसे थे महान समाज सुधारक और दार्शनिक संत रविदास. हम सबको उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए और उनके चरित्र को अपने जीवन में उतार लेना चाहिए. हम ऐसे महान संत के विचारों और उनके सद्चरित्र को शत-शत नमन करते हैं.



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