आज भी देशभक्तों के दिलों में जिन्दा हैं लाला लाजपतराय- जयंती पर विशेष


 लाला लाजपत राय का जन्म २८ जनवरी १८६५ को अपने ननिहाल धुन्धिके (जिला फरीदकोट,पंजाब) में हुआ था. उनके पिता का नाम मुंशी राधाकिशन गर्ग था.
भारत की आजादी के आन्दोलन के प्रखर नेता लाला लाजपतराय के ह्रदय में अपने देश,धर्म तथा संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम व् सम्मान था. भारत को स्वाधीनता दिलाने में उनका त्याग, बलिदान तथा देशभक्ति अद्वितीय और अनुपम थी. १८८० में उन्होंने कलकत्ता तथा पंजाब विश्व विद्यालय से प्रवेश परीक्षा एक वर्ष में पास की, १८८२ में ऍफ़ ए की परीक्षा तथा मुख्यारी की परीक्षा साथ-2 पास की.
लाला लाजपतराय आर्यसमाजी थे तथा साईंदास आर्यसमाज के प्रति पूर्णतया समर्पित थे. लाला जी ने एक मुख़्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवास स्थल जगरांव में ही वकालत प्रारम्भ कर दी थी. रोहतक में १८८५ में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर १८८६ में वे हिसार आ गए. १८८८ में प्रथम बार कांग्रेस के इलाहबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए, जिनकी अध्यक्षता मिस्टर जार्ज यूल ने की थी. १९०६ में वे पंडित गोपालकृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमंडल के सदस्य के रूप में इंग्लेंड चले गए. १९०७ में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लाला जी तथा सरदार अजीत सिंह( शहीद भगत सिंह) पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पडोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नजरबन्द कर दिया गया.
लालाजी केवल एक राजनीतिज्ञ ही नहीं थे बल्कि उन्होंने जनसेवा का भी सच्चा पाठ पढ़ा. जब १८९६ तथा १८९९ में भयंकर अकाल पड़ा तब लाला जी ने अपने साथी लाला हंसराज के सहयोग से अकाल पीड़ित लोगों को सहायता पहुंचाई. जिन अनाथ बच्चों को ईसाई पादरी अपनाने के लिए तैयार थे और अंततः जो उनका धर्म परिवर्तन करने के इरादे रखते थे उन्हें इन मिशनिरियों के चंगुल से बचाकर फिरोजपुर तथा आगरा के आर्य अनाथालयों में भेजा. १९०५ में कांगड़ा में भयंकर भूकंप आया. उस समय भी लालाजी सेवाकार्य में जुट गए और डीएवी कॉलेज लाहौर के छात्रों के साथ भूकंप पीड़ितों को राहत प्रदान की. १९०७-०८ में उड़ीसा मध्यप्रदेश तथा संयुक्त प्रान्त से भी भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और लालाजी को पीड़ितों की सहायता के लिए आगे आना पड़ा. 

साभार -The World Vibe 
20 फरवरी १९२० को जब वे स्वदेश लौटे तो अमृतसर में जलियांवाला बाग़ कांड हो चूका था और सारा राष्ट्र असंतोष की ज्वाला में जल रहा था. इसी बीच महात्मा गाँधी ने सहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ उसमें जुट गए. १९२० में ही वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने. १९२४ में लालाजी कांग्रेस के अंतर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गए और केन्द्रीय धारा सभा के सदस्य चुन लिए गए बाद में पंडित मोतीलाल नेहरु से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया, तो उन्होंने नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया और पुनः असेम्बली में पहुँच गए. १९२५ में उन्हें हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया. 
साभार
१९२८ में जब अंग्रेजों द्वारा नियुक्त साइमन भारत आया तब देश के नेताओं ने उसका बहिष्कार करने का निर्णय लिया. ३० अक्टूबर १९२८ को कमिशन लाहौर पहुंचा तब जनता के प्रबल प्रतिशोध को देखते हुए सरकार ने धारा १४४ लगा दी. लालाजी के नेतृत्व में नगर के हजारों लोग कमिशन के सदस्यों को काले झंडे दिखाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुंचे और “साइमन वापस जाओ” के नारों से आकाश गूंजा दिया. इसपर पुलिस को लाठीचार्ज का आदेश मिला. उसी समय अंग्रेज सांडर्स ने लालाजी की छाती पर लाठी का प्रहार किया जिससे उन्हें सख्त चोट पहुंची. इस दारुण प्रहार से आहत होकर लालाजी ने अट्ठारह दिन तक विषम ज्वर पीड़ा भोगकर १७ नवम्बर १९२८ को परलोक के लिए प्रस्थान किया.
लालाजी ने अंतिम भाषण देते हुए कहा था “मेरे शरीर पर पड़ी लाठी की प्रत्येक चोट अंग्रेजी साम्राज्य के कफ़न की कील का काम करेगी”.                                                -मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”

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