कृपया थाने और तहसील के काम लेकर न पधारें


चांदपुर के एक “इम्पोर्टेड नेताजी” जो किसी ज़माने में चांदपुर में “गरीबों के मसीहा” बनकर आये थे और उनके समर्थकों ने उन्हें चांदपुर का “रॉबिनहुड” साबित करने में एडी-चोटी तक का जोर लगा दिया था. उन्होंने इस हद तक समाजसेवा की कि लोग उनके पंडाल में लगी कुर्सियां भी उठाकर ले गए थे. इन नेताजी ने एक “रेड आर्मी” यानि “लाल सेना” का भी गठन किया जिसमें समाजसेवा का जज्बा फूंक-फूंककर भरा गया. मंचों से ऐलान भी किये गए कि नेताजी गरीबों की सेवा के लिए “इम्पोर्ट” किये गए हैं, जिसको जितनी सेवा करानी हो करा लो. इसका असर ये हुआ कि वर्षों से भूख-प्यास से बैचेन जनता बदहवास सी होकर नेताजी के दरबार में हाजिरी लगाने लगी और एक दिन ऐसा भी आया कि नेता जी दीवार कूदकर भाग लिए और जनता के हाथ जो भी सामान लगा वो लेकर निकल ली. 
इसपर नेता जी की रेड आर्मी भड़क गई और इल्जाम एक ऐसे इन्सान पर लगा दिया जिसका उस घटना से कोई वास्ता नहीं था बल्कि बताया जाता है कि खुद नेताजी ने ही अपने झोंपड़े में आग लगा दी थी ताकि अपने राजनीतिक हाथ सेंक सकें और वैसा ही हुआ कि नेताजी को राजनीतिक सपोर्ट मिल गई और उनकी कथित समाजसेवा को लोगों की सहानुभूति प्राप्त हो गई. बहरहाल अब नेताजी बा-मुहर “गरीबों के रॉबिनहुड” बन गए और फिर शुरू हुआ नेताजी का राजनीतिक खेल और इस खेल को खेलते-खेलते नेताजी पुरे राजनीतिज्ञ बन गए.
बहरहाल जनता ने नेताजी को “हीरो” मान लिया. हद ये कि नेताजी को चांदपुर का “अम्बानी साहब” बनाकर पेश किया गया. भोली-भाली जनता नेताजी के ठाठबाट देखकर हैरान रह गई, महंगी गाड़ियाँ, कीमती कपड़े और इम्पोर्टेड इत्र की खुशबू ने जनता को नेताजी के वशीभूत कर दिया और आखिर नेताजी जनप्रतिनिधि जैसे बन ही गए. जैसे ही नेताजी ने कुर्सी सम्भाली गरीब जनता अपनी फरियाद लेकर नेताजी के दरबार में हाजिर होने लगी लेकिन एशो-आराम की जिन्दगी जीने वाले नेताजी को जनता की समस्याओं से क्या लेना-देना. नेताजी को तो केवल अपनी हसरत पूरी करनी थी सो हो गई. अब जनता जाये जहन्नुम में, नेताजी को तो मानो जीते जी जन्नत मिल गई थी.
इसी बीच नेताजी के कुछ ख़ास लोग मौके और नेताजी के रसूख का फायदा उठाकर “मुर्गियां” तलाशने लगे जिसकी शिकायत नेताजी पर पहुंची, इधर सुना है कि एक छुटभैये नेताजी भी एक सिफारिश लेकर थाने पहुंचे और अपने “आका” के नाम से थाने में रौब ग़ालिब करने की कोशिश करने लगे, लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार वहां पर मौजूद पुलिस अधिकारी ने उन्हें जब पुलिसिया अंदाज में समझाया तो उक्त छुटभैये नेताजी वहां से नौ-दो ग्यारह हो गए.
एक और किस्सा जो कि मुझे नेताजी के ही एक खास समर्थक ने सुनाया, जिसमें उन्होंने बताया कि -एक बुजुर्ग महिला जो कि नेताजी की ही बिरादरी से ताल्लुक रखती है, नेताजी के पास बड़ी आस लगाकर गई, सुना है उसकी दीवार का कोई मसला था जिसमें वो नेताजी के जरिये फैसला चाहती थी. लेकिन जब वो नेताजी के पास गई तो नेताजी ने उनसे दो-टूक मनाकर दिया, इसपर उस महिला ने नेताजी से कहा कि भाई तू हमें अपनी अम्मी से मिलवा दे, हम उनके समक्ष अपनी समस्या रख देंगे तब नेताजी ने टका सा जवाब दे दिया कि “अम्मी की तबियत खराब है”. इसपर महिला ने कहा कि “गलती हमारी थी जो हम बिरादरीवाद में आकर गलती कर बैठे”.
इसके बाद सुना है कि नेताजी ने अपने कार्यालय में एक सूचनापट लगवा दिया जिसपर लिखवा दिया कि “थाने-तहसील के काम लेकर न पधारें”.
अब नगर में चर्चा है कि “थाने-तहसील का काम नेताजी करेंगे नहीं और नालियां और सड़कें साफ करने के लिए नेताजी को हम बुलाएँगे नहीं”, तब आखिर इस “इम्पोर्टेड नेता” का क्या अचार डालेंगे. बहरहाल हमें क्या हम तो इतना ही कहेंगे कि-
“उन्हें गैरों से कब फुर्सत, हम अपने गम से कब खाली,
बस हो चुका मिलना न हम खाली, न वो खाली.”
               
                                              
                            -उपरोक्त समस्त कथानक सूत्रों के हवाले से

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