स्टेथोस्कोप से AK-47 तक : 21वीं सदी के सफेदपोश आतंकी
भारत और दुनिया के सामने अब आतंक का चेहरा बदल चुका है। जहां पहले आतंकवादी गुफाओं या सीमाओं में छिपे मिलते थे, आज वही मानसिकता लैब-कोट, डिग्री और डॉक्टरों के रूप में हमारे समाज में भीतर तक प्रवेश कर चुकी है।
हालिया वर्षों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां चिकित्सा, इंजिनियरिंग और अध्यापन जैसे सम्मानित पेशे से जुड़े लोग या तो आतंक के नेटवर्क का हिस्सा पाए गए, या वैचारिक रूप से जिहादी संगठनों से सहानुभूति रखते मिले। यह केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि सभ्यता के चरित्र पर भी प्रश्न है।
शिक्षा बनाम विचारधारा : डिग्री से विवेक नहीं आता
आतंक का सबसे खतरनाक रूप वही है जो शिक्षा और आधुनिकता की आड़ में चलता है।
डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक — ये पेशे सामान्यतः तर्क और विवेक पर आधारित माने जाते हैं। लेकिन जब विचारधारा विवेक को कुचल देती है, तब वही व्यक्ति “educated terrorist” बन जाता है।
डिग्री नीयत नहीं बदलती। इस वर्ग का खतरा इसलिए अधिक है क्योंकि ये सिस्टम के भीतर से हमला करते हैं।
सफेदपोश आतंकवाद क्या है?
“सफेदपोश आतंकी” शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त होता है जो समाज में प्रतिष्ठित दिखते हैं, लेकिन उनके कार्य, विचार या नेटवर्क राष्ट्रविरोधी या हिंसक विचारधारा से जुड़े होते हैं।
इनकी विशेषताएँ हैं:
- ऊँचा शिक्षित होना (डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील आदि)
- समाज में नैतिक छवि का भ्रम
- अंतरराष्ट्रीय या वैचारिक नेटवर्क से जुड़ाव
- सोशल मीडिया, NGO या संस्थागत ढाँचों के माध्यम से वैचारिक विष फैलाना
- यह वह आतंक है जो बम या बंदूक से नहीं, बल्कि विचार, भ्रम और भरोसे के साथ मारता है।
भारत में चिकित्सा जगत की संदिग्ध घटनाएँ
हाल के वर्षों में कुछ डॉक्टरों पर या तो ISIS, PFI या अन्य इस्लामिक संगठनों से संबंध के आरोप लगे।
कुछ ने सोशल मीडिया पर कट्टरपंथी विचारधारा फैलाने, आतंकियों को आश्रय देने या जिहाद के समर्थन वाले बयान देने जैसी गतिविधियाँ कीं।
हालाँकि हर केस अदालत में सिद्ध नहीं हुआ, लेकिन इसने चेतावनी दी कि "अब आतंक की पाठशाला अस्पतालों में भी खुल सकती है।"
जिहाद की मानसिकता और पेशे का दुरुपयोग
कट्टरपंथ की रणनीति हमेशा “भरोसे वाले वर्ग” में घुसपैठ की रही है।
डॉक्टर, शिक्षक, पत्रकार — ये सब भरोसे के पेशे हैं।
जब कोई डॉक्टर “इलाज” की जगह “इंतकाम” के सिद्धांत में यक़ीन रखने लगता है, तो समाज का बुनियादी संतुलन टूट जाता है।
यह सिर्फ़ एक व्यक्ति का अपराध नहीं, बल्कि विश्वास की हत्या है।
कानून और सुरक्षा एजेंसियों की चुनौती
इन सफेदपोश आतंकियों से निपटना कठिन इसलिए है क्योंकि इनके पास कानूनी कवच और सामाजिक प्रतिष्ठा होती है। इनके नेटवर्क डिजिटल और वैचारिक दोनों स्तरों पर सक्रिय रहते हैं।
ये आतंक का नया “soft front” हैं —
जो नफरत, फंडिंग और भर्ती (recruitment) में अहम भूमिका निभाते हैं।
इसलिए अब कानून को केवल AK-47 नहीं, Stethoscope के पीछे छिपे खतरे को भी पहचानना होगा।
शिक्षा नहीं, संस्कार चाहिए
आज की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि “हम शिक्षित तो बना रहे हैं, लेकिन इंसान नहीं।”
यदि चिकित्सा की डिग्री भी किसी को कट्टर बना दे, तो समस्या शिक्षा की नहीं, संस्कार की है।
भारत की प्राचीन परंपरा में “वैद्य” जीवनदाता माना गया है —
“वैद्यो नारायणो हरिः”।
लेकिन जब वही वैद्य मानवता के बजाय मज़हबी या वैचारिक युद्ध में उतर जाए, तो यह केवल आतंक नहीं, बल्कि सभ्यता की पराजय है।
भारत को केवल सीमाओं की नहीं वैचारिक सुरक्षा की ज़रूरत
“Stethoscope बनाम AK-47” की यह जंग, असल में ज्ञान बनाम अंधविश्वास, मानवता बनाम हिंसा,और संस्कार बनाम कट्टरता की लड़ाई है।
अगर हमने इन सफेदपोश आतंकियों को समय रहते पहचाना नहीं, तो कल हमारी शिक्षा और चिकित्सा दोनों ही हथियार बन जाएँगी।
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क्या हम सिर्फ़ डिग्री वालों को सम्मान दे रहे हैं, या चरित्र वालों को भी पहचान रहे हैं?
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