क्या भारत आस्तीन में साँप पाल रहा है?

राष्ट्रद्रोहियों का नया चेहरा और भारतीय सहनशीलता की सीमा

“Silhouette illustration of a politician feeding a snake, symbolizing hidden internal threats and betrayal.”

भारत के इतिहास में विदेशी आक्रमणों से अधिक विनाश भीतर के गद्दारों ने किया है।
राजा दाहिर को तो बाहर से आक्रमण ने मारा, लेकिन पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, झाँसी की रानी — सभी को अपने ही दरबार में छिपे साँपों ने डसा।
आज 21वीं सदी का भारत भी वही गलती दोहरा रहा है — आस्तीन के साँपों को “अल्पसंख्यक अधिकार” कहकर पाल रहा है।

राजनीतिक तुष्टिकरण: वोटों की खातिर गद्दारों का पोषण

भारत में कुछ दलों ने “धर्मनिरपेक्षता” के नाम पर राष्ट्र-विरोध को राजनीतिक पूँजी बना लिया है

कश्मीर में पत्थरबाज़ों को “मासूम नौजवान” कहने वाले, आतंकी मुठभेड़ों पर “फर्जी एनकाउंटर” का शोर मचाने वाले, और पाकिस्तान को “भाई” कहने वाले. यही वे लोग हैं जो इस देश की राजनीति में आस्तीन के साँपों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इनके लिए भारत की सेना “हत्यारी” है, पर आतंकियों के लिए “शहीद” का शब्द तैयार रखते हैं।
यही वो वर्ग है जो संविधान की शपथ लेकर संसद में बैठता है, और दिल्ली में बैठकर देश तोड़ने की भाषा बोलता है।

विश्वविद्यालयों में जहर: “भारत तेरे टुकड़े होंगे” की प्रयोगशाला

JNU, AMU, जामिया जैसे विश्वविद्यालय अब कट्टरपंथी विचारधारा के कारख़ाने बन चुके हैं। यहाँ “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” के नाम पर कट्टरपंथी नारे लगाए जाते हैं, और सरकार की नीतियाँ नहीं, बल्कि राष्ट्र की एकता निशाने पर होती है।

इन संस्थानों में पल रहे ये स्वघोषित बुद्धिजीवी (अर्बन नक्सली) न तो सीमा पर लड़ते हैं, न समाज के लिए कुछ करते हैं, बस अपने विषैले शब्दों से युवापीढ़ी को राष्ट्रविरोध के नशे में डुबोये रखते हैं।

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धार्मिक कट्टरपंथ: जिहाद का छिपा हुआ एजेंडा

भारत की सहिष्णुता को यहाँ की कुछ ताक़तें कायरता समझ चुकी हैं।

“लव जिहाद”, “लैंड जिहाद”, “पॉपुलेशन जिहाद” — ये तीनों आधुनिक हथियार हैं,
जिनसे एक पूरे राष्ट्र की जनसांख्यिकी बदली जा रही है।

कट्टरपंथी मौलानाओं के विद्यालयों में भारत-विरोधी शिक्षा दी जा रही है।

मस्जिदों से आस्था की नहीं, बल्कि राजनीतिक कब्ज़े की आवाज़ें उठ रही हैं।

ये वो साँप हैं, जो एक दिन सांस्कृतिक नियंत्रण के रूप में भारत की आत्मा को निगलने की साजिश रच रहे हैं।

विदेशी फंडिंग और बौद्धिक गद्दारी

  • देश में कई NGOs और मानवाधिकार संगठनों के पीछे विदेशी एजेंसियों का एजेंडा काम कर रहा है।
  • इनका उद्देश्य भारत में साम्प्रदायिक संघर्ष, जातीय विभाजन और सरकार विरोधी अस्थिरता फैलाना है।
  • ये डॉलर और दीनार के बदले भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर “सत्तावादी राज्य” साबित करने में लगे हैं।
  • ये वह वर्ग है जो खादी पहनता है, लेकिन सोच में इस्लामाबाद या वाशिंगटन के प्रति वफादार होता है।

सहनशीलता बनाम आत्मघात

भारत दुनिया का सबसे सहिष्णु देश है —परंतु सहनशीलता का अर्थ यह नहीं कि गद्दारी को भी सह लिया जाए।
जब लोकतंत्र की आज़ादी को “देश तोड़ो आंदोलन” का लाइसेंस बना दिया जाए, तो समझ लीजिए कि यह राष्ट्र के भीतर साँपों की पूरी पीढ़ी पनप चुकी है।
यह समय है जब भारत को यह निर्णय लेना होगा:
 “क्या हम सबको साथ लेकर चलें, या कुछ को साथ रखकर खुद डूब जाएँ?”

 राष्ट्रीय नीति: दया नहीं, निर्णायक कार्रवाई

  • अब आवश्यकता है — कठोर कानूनों, तेज़ न्याय और राष्ट्र-प्रथम दृष्टिकोण की।
  • धर्म के नाम पर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को राजद्रोह की श्रेणी में लाना होगा।
  • विदेशी फंडेड NGOs पर कठोर ऑडिट और प्रतिबंध आवश्यक है।
  • शिक्षा संस्थानों से “भारत-विरोधी तत्वों” को स्थायी निष्कासन की नीति अपनानी होगी।

यह युद्ध शब्दों का नहीं, संकल्प का है। और यह तय करना ही होगा कि भारत अब किसी को अपनी आस्तीन में जगह नहीं देगा।

भारत ने हमेशा सबको अपनाया —लेकिन अब जो इस भूमि की जड़ें काट रहा है, उसे पहचानने का समय आ गया है।

“जो इस मिट्टी को अपना नहीं मानता, वह इसका अन्न खाने का भी हकदार नहीं।”

भारत अब करुणा की नहीं, कर्म की भूमि है। अब या तो साँप को कुचला जाएगा, या वह भारत की आत्मा को डसेगा।

निर्णय अब राष्ट्र को लेना है — कठोर, स्पष्ट और अंतिम।

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